जर्रे में मेरी सोच थी , बेहिसाब हो गए /
जिया था हर-पल साथ में,अब ख्वाब हो गए //
दूरियां अनंत थी ,मिलना मुफीद था /
फासले तो बढ़ चले, जब पास हो गए //
मांगी मुराद, ना मिल सकी ,कैसी बयार थी /
जला के आशियाँ मेरा, रोशन, चराग हो गए //
मुड़ चले जब दौर से आँचल समेट कर /
सुनसान से रस्ते में, हम साये के साथ हो गए //
हृदय बना था पुल , तब दरिया लकीर थी /
टूट बिखरा हो लाचार , दो घाट हो गए //
उदय वीर सिंह
25/09/२०१०
2 टिप्पणियां:
बहुत खूबसूरत ...
हृदय बना था पूल , तब दरिया लकीर थी /
पूल को पुल कर लें ..
accept my pranam with folded hands.An intellectual
can do what you deed .I always will wait for your precious comments .thanks.
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