शनिवार, 11 दिसंबर 2010

प्रवाह

पथ गमन कर चले ,तज सजे दो फलक ;
स्मृतियों में बसे वेदना बन  चले  -----------

बादलों   के  नगर , दामिनी   से   जले   ,
खंडित   हुए  ,   यातना    बन   चले  -------

दंश हर -पल हृदय ,  बेधते    ही     रहे  ,
गुल ,गुलाबों के घर , वासना बन चले    -------- 

आगमन में खनक है ,गमन में तड़फ   ,
स्वप्न ,संचित  रहे   चेतना  बन  चले  ----------

पथ निहारें  पलक , आगमन  हो  ना हो ,
 वो प्रतिक्षा ही क्या   कामना  बन चले  -------

प्रेम की राग निकलेगी , हर साज से  ?
ये जरुरी नहीं  ,  वो गज़ल बन  चले -----

जो झुका   ही  नहीं   पा  के   उंचाईयां ,
उदय   तज  धरा ,  आसमां   बन  चले  -----------

                               उदय वीर सिंह 
                                ११/ १२ /२०१० 

4 टिप्‍पणियां:

Anamikaghatak ने कहा…

bahut sundar .........likhte rahiye

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुन्दर ....


धारा को धरा कर लें

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 14 -12 -2010
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..


http://charchamanch.uchcharan.com/

दिगम्बर नासवा ने कहा…

प्रेम की राग निकलेगी , हर साज से ?
ये जरुरी नहीं , वो गज़ल बन चले --

सच है ... प्रेम का साज़ तो चिड़ियों की चहक में ... मजदूर की ठक ठक में भी होता है ... लाजवाब ...