गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

**भ्रंश**

मेरे
 हमसफ़र ,
डूबती रात में 
उतराकर,
चाँद बन गया  /
क्यों चिढ़ता है मुझे ,
अमावास की रात बाकी है /---------
मुझे रहने दे ,
आगोश में 
यादों के /
वादियों ,सागरों ,पहाड़ों में ,
ढूढता हूँ ,तेरी परछाईं  /
नहीं मिलती  /
आरत मन ,उद्विग्न होता है ,टूटता है ,/
जानकर ---
तेरा साया भी तेरे साथ नहीं  /
छल था मेरा ,हमराह बनना  !
अलसुबह ,नहीं होगा वजूद तेरा 
अभागी ओश की तरह  /
प्रखरित होगा  दिनकर , 
व्योम में  /------------

                    उदय वीर सिंह 
                     ३०/१२/२०१० 


3 टिप्‍पणियां:

केवल राम ने कहा…

मन के भावों को बहुत संजीदगी से अभिव्यक्त किया है आपने ...शुक्रिया

केवल राम ने कहा…

तेरा साया भी तेरे साथ नहीं /
छल था मेरा ,हमराह बनना !
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वेदना का उत्कृष्ट नमूना हैं यह पंक्तियाँ ...
नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनायें ...स्वीकार करें

vandana gupta ने कहा…

यही ज़िन्दगी की सच्चाई है।