गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

**** दो शब्द * ***

उन्माद  की     राहों  में   ,पनाहों  में  ,
बसर      नहीं     होता   --------------

गुमनाम - सी   गलीयों      में     कहीं   ,
अपना  ,  शहर   नहीं      होता   ----------

ताजमहल  होता  यादों  के  समंदर  जैसा   ,
रहने   के  लिए  वो  , घर  नहीं    होता   ---------

झूठे  वादों   में ,इरादों  में  रूहानी   बनते   ,
आया जो  इस  जमीं  पर   , अमर  नहीं  होता  ---------

फूल  खिलता  है   ख्वावों  में  ,ख्यालों  में    ,
कभी  नज़र  नहीं   होता  ----------------

पल  दो  पल  का  साथ  रहा  , हमराह  कोई   ,
हमसफ़र  नहीं  होता  ---------

वफ़ा    -ए  यार   के  किस्से  बयाँ  नहीं  होते   ,
छपे  अख़बार  में  , वो   खबर  नहीं    होता --------

जलता  है  जिगर  ,जज्ज्बात  की   लौ  ,कहो  ना  कौन ?  ,
जख्में - जिगर  नहीं   होता   --------------


                                             उदय  वीर  सिंह 
                                              23/12/2010

9 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

uउदयवीर जी हर एक पँक्ति दिल को छू रही है मुझे तो यही समझ नही आ रहा कि कौन सा शेर कोट करूँ
इस लाजवाब रचना के लिये बधाई।

Anamikaghatak ने कहा…

bhau sundar

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

ताजमहल होता यादों के समंदर जैसा ,
रहने के लिए वो , घर नहीं होता ---------
बहुत सुन्दर गज़ल ..

vandana gupta ने कहा…

भावो का सुन्दर समन्वय्।

अनुपमा पाठक ने कहा…

आया जो इस जमीं पर , अमर नहीं होता ---------
बहुत सुन्दर!!!
सत्य उद्घाटित करती सार्थक रचना!!!

Kailash Sharma ने कहा…

ताजमहल होता यादों के समंदर जैसा ,
रहने के लिए वो , घर नहीं होता ---------


बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति..हरेक पंक्ति लाज़वाब

वाणी गीत ने कहा…

कहो ना कौन जख्मे जिगर नहीं होता ?
सही !

Dorothy ने कहा…

आया जो इस जमीं पर , अमर नहीं होता ---------

दिल को छूने वाली खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

मंजुला ने कहा…

बहुत भावपूर्ण और सुन्दर .....