दौर - ए - जहालत , मतलबपरस्ती , अदावत के ,
इंसानियत के लिबास में ,इन्सान कम मिलते हैं ---
उठाने वाले उंगलियाँ , दूसरों के ईमान पर ,
झाँका हो कभी अपनी, वो गिरेबान कम मिलते हैं ---
सूखता है पानी आँख का,आँचल का,ऐतबार का जाना ,
मयखाना भरे हुए हैं , गंगा - जल कम मिलते हैं ---
देखते हैं अक्सर , दम - ख़म , दहाड़ भी यारा
जंगल बने शहर,अब जानवर जंगल में कम मिलते हैं--
वस्त्रहीन काया ," बैक टू नेचर " का साया ,
अब जारवा शहर में ज्यादा ,वनों में कम मिलते हैं --- [ जारवा -आदिम जंगली जाति ]
तारे गिन लेने की सनक , साधन नहीं तो क्या हुआ ,
नाप लेंगे अंतरिक्ष को,वो आर्यभट्ट कम मिलते हैं ---
हांथों में लेकर सिर , इन्कलाब कहते रहे ,
रोशन रहे आँधियों में ,वो चिराग कम मिलते हैं ---
पतझड़ , गर्दिशी ,मुफलिशी में साथ कौन देता उदय ,
पोंछ दे आंसूओं को मान दे वो हाँथ कम मिलते हैं ---
उदय वीर सिंह
१०/०५/२०११
13 टिप्पणियां:
सूखता है पानी आँख का,आँचल का,ऐतबार का जाना
मयखाना भरे हुए हैं, गंगा जल कम मिलते हैं
उदय जी आप ऐसे उच्च और उत्तम भावों का 'उदय'
कर देते हैं कि मन वाह ! वाह ! करने के लिए मजबूर है.वास्तव आप जैसे अनुपम भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति करने वाले 'कम मिलते है'
बहुत बहुत आभार शानदार प्रस्तुति के लिए.
वस्त्रहीन काया ," बैक टू नेचर " का साया ,
अब जारवा शहर में ज्यादा ,वनों में कम मिलते हैं ---
हर पंक्ति में प्रासंगिक भाव हैं...... सटीक व्यंगात्मक पंक्तियाँ
उठाने वाले उंगलियाँ , दूसरों के ईमान पर ,
झाँका हो कभी अपनी, वो गिरेबान कम मिलते हैं
खुबसूरत अहसास और उनकी अभिव्यक्ति बधाई स्वीकार करें.....
"सूखता है पानी आँख का,आँचल का,ऐतबार का जाना ,
मयखाना भरे हुए हैं , गंगा - जल कम मिलते हैं "
बहुत खूब भाई जी ! शुभकामनायें !!
हांथों में लेकर सिर , इन्कलाब कहते रहे ,
रोशन रहे आँधियों में ,वो चिराग कम मिलते हैं ---
laajwaab
बेहतरीन ग़ज़ल।
गज़ब की गज़ल है…………शानदार्।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (12-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
.
उदयवीर जी ,
आपकी रचनाओं में बहुत गहन अनुभव शामिल होते हैं । एक जिम्मेदार और गंभीर व्यक्तित्व के दर्शन मिलते हैं । प्रेरणादायी है आपको पढना।
.
अब जानवरों ने बना ली बस्तियां शहर में
इंसानियत के लिबास में इंसान भी कम मिलते हैं ...
क्या बात कही ...
सभी पंक्तियाँ सत्य का भान कराती हैं !
सूखता है पानी आँख का,आँचल का,ऐतबार का जाना ,
मयखाना भरे हुए हैं , गंगा - जल कम मिलते हैं -
बहुत खूब ...बढ़िया गज़ल
gazab ka likhe hain....
अच्छा लिख रहे हैं आप।
यह रचना भी बेहतरीन है।
वस्त्रहीन काया ," बैक टू नेचर " का साया ,
अब जारवा शहर में ज्यादा ,वनों में कम मिलते हैं
सुन्दर रचना ..
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
एक टिप्पणी भेजें