मंगलवार, 21 जून 2011

भ्रमर

मधुकर   मकरंद  ,पिया इतना ,
  तन    काले     की     शाला    है ,
    निजता कली .कुसुम का, मधु का ,
      फिर   भी    काला   का   काला   है ---

भूल  गया  सुध  लोट गया ,
   पंखुड़ियों      की    बाँहों   मे ,
     आश्रयहीन  , अवलम्ब   कहाँ ,
       बन  याचक  गिरा , पनाहों  में --

सूखे होंठ, प्यासा  मधुसेवक ,
    फिर   होंठों    पर     प्याला   है --

अनुबंध -हीन एक  ठौर  नहीं,
   मडराये  फूलों  की  गलियों में  ,
    सानिध्य ,स्पर्श  की  चाहत   में ,
      रीता    जीवन    रंगरलियों    में ---

भ्रमर गीत ,माधुर्य   नृत्य ,
    सम्मोहित   करने   वाला   है  ---

हृदय- हीन , प्रणय   का  ज्ञानी ,
   आमंत्रण कलियों का  रहा बटोर ,
    खिला   यौवन   रस    भीग   रहा ,
      बिन    बसंत      करता    किलोल --

सौम्य -बेल सुवासित लतिका ,
    हर  कली, कुसुम  से   पाला   है---

चिपटा,  लिपटाये    बांहों    में ,
  अनंग    भाव   उर    में    पाले ,
    प्रतीक्षा- रत  ,  कांटे     रखवाले ,
      मदहोस   गिरा   तो   बिंध   डाले --


लिपटा  तन , कफ़न  खुशबु  का ,
  मधु , अंतिम   पथ  की  हाला  है 
    मृत, गिरा  शरीर ,झरी  पंखुडियां ,
      कैसी       किस्मत     वाला      है --

                                 उदय वीर सिंह  .
                                   २०/०६/२०११
 
     
   




4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

लिपटा तन , कफ़न खुशबु का ,
मधु ,अंतिम पथ की हाला है
मृत, गिरा शरीर ,झरी पंखुडियां ,
कैसी किस्मत वाला है --
--
सुन्दर रचना!
यही तो विडम्बना है!

udaya veer singh ने कहा…

आदरणीय डॉ.साहब ,
मेरी काव्य कल्पना की उड़ान पर कम से कम आपनेआशीष की पूंजी तो दी , अभिभूत हूँ ,पाकर स्नेह को ..... शुक्रिया जी /

रश्मि प्रभा... ने कहा…

भूल गया सुध लोट गया ,
पंखुड़ियों की बाँहों मे ,
आश्रयहीन , अवलम्ब कहाँ ,
बन याचक गिरा , पनाहों में --
itni mithaas , itna pyaar, itna unmukt daan bhram aur kahan paata

ZEAL ने कहा…

उदय जी ,
आपकी रचनाओं में काव्य का यथाथ दर्शन होता है। मैं तो स्वयं को बहुत कमतर पाती हूँ इन रचनाओं की प्रशंसा हेतु। आपकी कविताओं में दर्शन दृष्टिगत होते हैं । कायल हूँ आपकी कलम की । अभिवादन स्वीकार करें।