हम दीवारों में हैं ,तुम कतारों में ,
बस्ती गुनाहगारों की ,महफूज बहारों में -
जब डरने लगे हैं कलम के सिपाही ,
खामोश है जिंदगी, इशारों में -
अत्याचार का नशा परवान है ,इस कदर ,
कट रहा है इन्सान, बाज़ारों में -
बिकते थे इन्सान, वहसियों के राज में,
लौट आया है इतिहास,अबके ताजदारों में -
ये देश मेरा भी है , कहने की हसरत ,
जुबाँ कैद है , होठों की दरारों में -
बहना ही अच्छा है उदय,दरिया जो शीतल है ,
वरना , आग ही आग फैली है, किनारों में -
शर्मिंदा हैं ,न दे पाए तुम्हें सपनों का वतन ,
फर्क इतना है ,हम बाहर हैं ,तुम मजारों में -
उदय वीर सिंह .
२७/१०/2011
8 टिप्पणियां:
विवेक जी के मेरे सपने, शाक-आहारी रहो
ख़्वाब हो या कोई हकीकत, कौन हो तुम कुछ कहो
इश्क नचाये जिसको यारा, साथ उसको मत बहो
सरदार बोले उन्नयन पर, कष्ट बे-पनाह सहो |
आपकी उत्कृष्ट पोस्ट का लिंक है क्या ??
आइये --
फिर आ जाइए -
अपने विचारों से अवगत कराइए ||
शुक्रवार चर्चा - मंच
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत सुन्दर ग़जल है!
दीपावली, गोवर्धनपूजा और भातृदूज की शुभकामनाएँ!
आपके पोस्ट पर पहली बार आया हूं । पोस्ट अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा भी मनोवल बढाएं । धन्यवाद ।
खुबसूरत प्रस्तुति ||
आभार महोदय |
शुभकामनायें ||
वाह! वाह! वाह!
खूबसूरत कलाम
अत्याचार का नशा परवान है ,इस कदर ,
कट रहा है इन्सान,बाज़ारों में -
बहुत अच्छी गज़ल है ...
इतने गहरे भाव ..की बार पढ़ी मैंने तो ....
जब इन्सान ही हैवान बन जाए तो दुनिया का अंत समझो !
ऊँची सोच उडारी उदय वीर जी ....
हरदीप
बहना ही अच्छा है उदय,दरिया जो शीतल है ,
वरना , आग ही आग फैली है, किनारों में -
बहुत खूब ....
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