सोमवार, 12 दिसंबर 2011

तरंगिका

चन्द्रबदना    हंसी  साज  बन जाती है  
बन के लय मेरी गीतों में छलका करो -


मेरी अभिव्यक्तियाँ पथ -प्रखर होती हैं ,
रात -रानी  सी , यादों  में महका  करो -


हाथ   सानिध्य  में , गीत  कंगन  कहे ,
बस के मानस में ,सावन सी वर्षा करो -


जैसे  भीगी  कली, ओश   में  भी  जले ,
गीष्म बनकर शरद में भी दहका करो -


लेखनी  में  बसों  की  गजल  बन  उठे ,
बन  तरन्नुम  लबों  से ,  बहका  करो -


हम   हकीकी  , हुनर  के   तलबगार हैं ,
दर-गरीबां , कदम  अपने   रखा  करो -


उम्र- भर  हम  ज़माने   को  सुनते  रहे,
कुछ   मेरी    रुबाई   भी   साझा    करो -


                                       उदय वीर सिंह  

10 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन, सरल शब्दों में भावों की गहराई।

अनुपमा पाठक ने कहा…

उम्र- भर हम ज़माने को सुनते रहे,
कुछ मेरी रुबाई भी साझा करो -
वाह!
भावों का उन्नयन करने में आपकी लेखनी सक्षम है!

Rakesh Kumar ने कहा…

उम्र- भर हम ज़माने को सुनते रहे,
कुछ मेरी रुबाई भी साझा करो -

आह! बहुत सुन्दर, उदय जी.
आपकी लेखनी को नमन.

Satish Saxena ने कहा…

चन्द्रबदना हंसी साज बन जाती है
बन के लय मेरी गीतों में छलका करो -

बड़ी मधुर पुकार है इस गीत में ....
शुभकामनायें आपको !

सदा ने कहा…

वाह ...बहुत ही बढि़या।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहूत सुन्दर

Maheshwari kaneri ने कहा…

सुन्दर भावों की गहराई बहुत रचना...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी प्रवि्ष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी की जा रही है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल उद्देश्य से दी जा रही है!
शुभकामनाओं सहित!

Smart Indian ने कहा…

बहुत सुन्दर, खासकर चन्द्रबदना शब्द का प्रयोग बहुत अलग सा लगा.

सागर ने कहा…

behad rachna.......