रविवार, 4 दिसंबर 2011

देखने दो .

मैं  अपने,
स्वप्नों  की शहादत
नहीं चाहता ...
देना चाहता हूँ आकार..
देखना चाहता हूँ ,                                                  
सुन्य ,असीम ,आशा- निराशा ,
प्यार, घृणा  ,
धूल-धूसरित ,महकता  ,
सानिध्य ! किसी अप्सरा का नहीं
जन-मानस का ,
अंतिम इकाई का ,
जो कहीं दूर ,
सूनी आँखों से देखता  ,
प्रतीक्षा में है ..
मद बसंत ,पतझर
शरद की रवानी ,राजनितिक तापमान ,
टूटते -जुड़ते समझौते ,
बनता बिगड़ता आसमान ,
मिस्टर इंडिया की हसरत ,
रामराज जैसा हिंदुस्तान
स्वप्न हैं ,स्वप्न में हैं ,
जिन्हें खोना
नहीं
चाहता
बजते नक्कारों में.........

          उदय वीर सिंह







  

10 टिप्‍पणियां:

S.N SHUKLA ने कहा…

सुन्दर शब्दावली, सुन्दर अभिव्यक्ति.

कृपया मेरी नवीन प्रस्तुतियों पर पधारने का निमंत्रण स्वीकार करें.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

एक बढ़िया अतुकान्त रचना पढ़वाने के लिए आभार!

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति ||

बधाई ||

http://terahsatrah.blogspot.com

Satish Saxena ने कहा…

आपकी सदिच्छा अवश्य पूरी होगी भाई जी !
शुभकामनायें आपको !

Kunwar Kusumesh ने कहा…

बहुत सुन्दर लिखा आपने.

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

जीवन से सभी रंगों के समावेश से ....ये सपने सजते है

Anamikaghatak ने कहा…

sundar shabdo se sjaya hai kavita ko ...umda lekhan

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रविष्टि...वाह!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच कहा है ... उन्नत भारत का सपना कोई भी नहीं खोना चाहता इसलिए उठना होगा ...

अनुपमा पाठक ने कहा…

स्वप्न जब तक जीवित है... सम्भावना भी सांस ले रही है!