शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

खरी -खरी


हम   सोचते  रहे  ढ़ो  रहे हैं  दुनियां  का  बोझ,
सच  ये  है  की  हम  बोझ बन गए दुनिया पर -

उठाओ शमशीर ख़त्म कर दो जुल्म की इन्तहां
मुकम्मल  ये, नाकाबिल हूँ म्यान भी उठाने  में-

हुनरमंद इतने हैं ,ऐंठ  लेते हैं  हड्डियाँ  तन की
कमाल है,हाथ मेडल नहीं तालियों के काम आते हैं-

ओलिम्पिक रेस में लिए काबुल के घोड़े छाँट कर
हैरानगी है घोड़ों की शक्ल में गधों की जमात थी -

बेचने को हुश्न ,लगाने को बोलिया बेसुमार दौलत
 धुएं     के    छल्ले   से  नंगी   देह   ढक   रहा  है

कलेंडर , बिस्तर, खूंटी  ,जहाज ,बारों  में  सजाये
देह ,किंग फिशर अभिव्यक्तियों की दलील  देता है

वो आ रहा है  आया  फतह  किया तख्तनशीं हुआ
नफ़रत ने बना  दिया खानसामा मैदान-ए- जंग में  

                                                   उदय  वीर  सिंह
                                                    02-02-2012


   


 

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हर नंगेपन को आवश्यक सिद्ध किये बैठे हैं।

udaya veer singh ने कहा…

मित्र आपकी टिप्पणी का आवश्यक बोझ जरुर ढ़ो सकते हैं पर अनावश्यक नहीं , मेरी रचना का मान विंदू ही यही है,की हम आत्मावलोकन करने के आदी नहीं हैं,सच को स्वीकार करना हमें नहीं आता , सुखानुभुतियों में जी कर हमें भ्रम ही मिलता है ,यथार्थ नहीं / टिप्पणी निरपेक्ष है या सापेक्ष हमें नहीं पता , पर विचारों के अनुरूप यथेष्ट है /

Dr.J.P.Tiwari ने कहा…

हम सोचते रहे ढ़ो रहे हैं दुनियां का बोझ,
सच ये है की हम बोझ बन गए दुनिया पर -


सार्थक और शत प्रतिशत सत्य. यही तो अज्ञानता है, सच का बोध नहीं और दम्भ से मरे जा रहें हैं . वाह! करारी चोट! खुश कर दिया आपने तो.