शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

* रोटी कपड़ा ,मकान *




उसकी छैनियों में
 इतना पैनापन है ,
तोड़ कर शिला ,तराश  देता 
पत्थर ,
सृजित हो जाती हैं  ,गगन चुम्बी 
अट्टालिकाएं
आकार लेती हैं,
लालित्य कला की सजीव सी लगती मूर्तियाँ 
खजुराहो की ,
दीवारें भी दूरियों  के निहितार्थ /
बाजुओं में इतना बल है 
समां जाती है धारा
सिहर उठता है प्रवाह 
दरिया का /
छाती में इतना साहस है ,
तिरोहित कर लेने   को 
तड़ित
सहनशीलता का आकार इतना,
बौनी होती ऊँचाई 
गगन की 
स्वेद बिन्दुओं,रुधिर से सींचता , 
लहलहा उठती फसल 
भर जाते हैं भंडार 
विडम्बना है कैसी !
ता -उम्र लगा रहा सृजन,उत्पादन में ,
बचपन से बुढ़ापा 
का मुकाम
आज भी कितनी दुरी है 
और कितने दूर होंगे ,
रोटी ,कपड़ा और ,
मकान .... 


                            उदय वीर सिंह 
                             04 -02 -2012 

  
  


 

14 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत संवेदनशील रचना .. अट्टालिकाएं निर्मित करता है पर अपने लिए उसकी झोपड़ी ही होती है ..

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वह अपने जीवन से तराशता रहा जगत को, उसका अपना जगत ही अधूरा रह गया...

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहुत सुन्दर लिखा है आपने

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आज के दौर में ऐसा होता है ... ये तीनों चीजें भी कितनी दुष्कर हो जाती हैं ... अच्छा लिखा है बहुत ही ...

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

इस देश की सच्ची तस्वीर यही है उदय जी.... इससे मुह नहीं मोड़ा जा सकता.....यथार्थ-चित्रण.
पुरवईया : आपन देश के बयार- कलेंडर

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

यही नियति है, शिल्पकार एवं मजदूर की

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 06-02-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

सहनशीलता का आकार इतना,
बौनी होती ऊँचाई.very nice.

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

!!!!!बहुत सुंदर प्रस्तुति ,अच्छी रचना

NEW POST....
...काव्यान्जलि ...: बोतल का दूध...

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

यह भी विरोधाभास ही है हमारे परिवेश के लिए , विचारणीय पंक्तियाँ

Naveen Mani Tripathi ने कहा…

विडम्बना है कैसी !
ता -उम्र लगा रहा सृजन,उत्पादन में ,
बचपन से बुढ़ापा
का मुकाम
आज भी कितनी दुरी है
और कितने दूर होंगे ,
रोटी ,कपड़ा और ,
मकान ....
baehad khoob soorat prastuti ....bahut bahut abhar.

Naveen Mani Tripathi ने कहा…

विडम्बना है कैसी !
ता -उम्र लगा रहा सृजन,उत्पादन में ,
बचपन से बुढ़ापा
का मुकाम
आज भी कितनी दुरी है
और कितने दूर होंगे ,
रोटी ,कपड़ा और ,
मकान ....
baehad khoob soorat prastuti ....bahut bahut abhar.

Naveen Mani Tripathi ने कहा…

विडम्बना है कैसी !
ता -उम्र लगा रहा सृजन,उत्पादन में ,
बचपन से बुढ़ापा
का मुकाम
आज भी कितनी दुरी है
और कितने दूर होंगे ,
रोटी ,कपड़ा और ,
मकान ....

Naveen Mani Tripathi ने कहा…

विडम्बना है कैसी !
ता -उम्र लगा रहा सृजन,उत्पादन में ,
बचपन से बुढ़ापा
का मुकाम
आज भी कितनी दुरी है
और कितने दूर होंगे ,
रोटी ,कपड़ा और ,
मकान ....