रविवार, 19 फ़रवरी 2012

संवेदनाएं मरने लगी हैं ....



      संवेदनाएं  मरने  लगी  हैं ..........
      टूट कर आईने सा बिखरने लगी हैं

कदम-दो कदम संग नहीं चलने वाले ,
वादों   में    सारी    उम्र    देने     वाले ,

        ख्वाबों में ख्वाहिश संवरने लगी है -

छूटा   है   दामन  , पकड़ते    पकड़ते,
टुटा   है   प्याला  ,होठों    तक   आके ,

        प्रतीक्षा  में  रातें  गुजरने  लगी  हैं-

हृदय   बन  गए  हैं ,घावों  की  शाला ,
बुत  बन  गया  आदमी   भी  निराला ,

        नजरें  नयन  की  बदलने  लगी  हैं -

कहीं  मुफलिशी  में  पडोसी  है  रोया ,
दर्द में ही गयी रात, पल  भर न सोया,

          कहीं रात प्यालों में ढलने लगी हैं --

हसरत  दिलों  से  मुकरने  लगी  हैं ,
बाहें   वफ़ा   की  सिमटने  लगी  हैं,

          कहीं हमने देखा, वो कहने लगी हैं --

                                            उदय वीर सिंह.
                                            19 -02 -2012
 


5 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गजब की अभिव्यक्ति...

vandana gupta ने कहा…

हृदय बन गए हैं ,घावों की शाला ,
बुत बन गया आदमी भी निराला ,

नजरें नयन की बदलने लगी हैं -

दिल मे घाव करती बेहतरीन प्रस्तुति।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत बढ़िया प्रस्तुति
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी लगा रहा हूँ!सूचनार्थ!
--
महाशिवरात्रि की मंगलकामनाएँ स्वीकार करें।

Naveen Mani Tripathi ने कहा…

hmesha ki tarah es bar bhi ak behatreen prastuti padhane ko mile ...badhai sweekaaren sardar ji .

अनुपमा पाठक ने कहा…

ख्वाबों में ख्वाहिश संवरने लगी है -
सच!
आपकी लेखनी को नमन!