पार करता हूँ
लावा भरी नदी
प्रतिदिन ,
देता हूँ अग्नि परीक्षा,विस्वास की
निशिदिन ,
बनाता हूँ बांध
रोकने को बाढ़, पीड़ा की ,
आत्मबल से ,
आँधियों से बचने का उपक्रम ,
बनाता हूँ पीठ की दीवार /
बोता हूँ फसल इंशानियत की ,
सींचता हूँ रुधिर से ,
क्षुधा मिटने की ले आस /
तामीर करता हूँ ,छत्र
हथेलियों का ,
भीगने से बचने का निहितार्थ ,
आकार लेती है इच्छायें ,
दमित होने को
विवस.../
मरुस्थल का घरौंदा ,
मृग- मरीचिका
का ले बोध ,
नियति बन गयी
रोज मरना ....
जीने के लिए
आखिर
कब
तक ....../
उदय वीर सिंह
27 -02 -2012
लावा भरी नदी
प्रतिदिन ,
देता हूँ अग्नि परीक्षा,विस्वास की
निशिदिन ,
बनाता हूँ बांध
रोकने को बाढ़, पीड़ा की ,
आत्मबल से ,
आँधियों से बचने का उपक्रम ,
बनाता हूँ पीठ की दीवार /
बोता हूँ फसल इंशानियत की ,
सींचता हूँ रुधिर से ,
क्षुधा मिटने की ले आस /
तामीर करता हूँ ,छत्र
हथेलियों का ,
भीगने से बचने का निहितार्थ ,
आकार लेती है इच्छायें ,
दमित होने को
विवस.../
मरुस्थल का घरौंदा ,
मृग- मरीचिका
का ले बोध ,
नियति बन गयी
रोज मरना ....
जीने के लिए
आखिर
कब
तक ....../
उदय वीर सिंह
27 -02 -2012
7 टिप्पणियां:
मरुस्थल का घरौंदा ,
मृग- मरीचिका
का ले बोध ,
नियति बन गयी
रोज मरना ....
जीने के लिए
आखिर
कब
तक ....../बहुत ही सुंदर भाव उदय जी आपकी ये बेहतरीन रचना के लिए...बधाई
बहुत ही संवेदनशील रचना दिल पर असर करने वाली, बधाई
इस उम्दा रचना को पढ़वाने के लिए आभार!
माना इस
जग ने किया
तेरा अपमान.
रखा नहीं तेरा
मान-सम्मान.
नहीं होने दिए
पूरे तेरे अरमान.
तेरी योग्यता को
नकार कर
तुम्हार निवाला
किसी और को
खिलाया गया.
मगर तू समय पर
विश्वास रख.
समय न्याय
दिलाता है
तू संयम रख,
प्रतीक्षा कर.
जग की आदत
यह तो पुरानी.
नहीं है इसमें
कोई नई कहानी.
तू तो वीरांगना है
हर बार की तरह
इस बार भी
संभाल जा.
आज भी गुण के
बहुत ग्राहक हैं.
ऐसे बहुत हैं
जो आहत हैं.
मगर वीरों से
खाली नहीं है धरा.
होगी सत्य की जय.
पढ़ा नहीं है -
'सत्यमेव जयते'.
'वीर भोग्या वसुंधरा'.
उनकी चुनौती को
कर तू स्वीकार.
तू उन्हें ललकार.
छिप जायेगे मांद में
वे सारे रंगे सियार.
न तू विद्रोह कर
न ही मौन धर.
तू अपनी लेखनी उठा
कागज़ पर विखर जा.
यह कविता आपके विशिष्ट कवि-व्यक्तित्व का गहरा अहसास कराती है।
काश कष्टों का निष्कर्ष बिन्दु भी दिखायी दे जाता।
बेहतरीन रचना
एक टिप्पणी भेजें