बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

-मंतव्य-

 हुंकार   भरो    तो     नाहर     सी  
श्वानों      की    गूंज    नहीं   होती- 

प्यासे   मन   की   प्यास    बुझाये 
वो    पानी    की   बूंद   नहीं  होती-

संवेदन     रचता     गीत     मधुर   
हर   साज   में    गीत  नहीं   होती -

जिस   हृदय  इर्ष्या , भय  का  डेरा 
निश्चित   ही  जीत  नहीं   मिलती -

मिटते     परवाने      दीप    शिखा  
हर ज्वाला     ज्योति   नहीं   होती-

जब  भुजा  में शक्ति  समन्वित हो  
तब   जिह्वा   भी  मूक   नहीं  होती- 

प्रतिकार- हीन     शंशय      सयना 
वो    जिन्दा    कौम    नहीं    होती- 


सेलुलर    भी     देवे    रश्मि-  प्रभा 
मतवालों   के  घर  धूप  नहीं  होती  

                                        उदय वीर सिंह 

8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपका ओजस्वी स्वर बहुत अच्छा रहा!
--
हुंकार भरो तो नाहर सा,
इसमें यदि हुंकार भरो तो नाहर "सी" कर देंगे तो शायद अच्छा लगेगा!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

भरतपुत्रों को हुंकार भरनी ही होगी..

udaya veer singh ने कहा…

बहुत बहुत आभार सर ! शुद्धिकरण के लिए / शुक्रिया

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति,जोश दिलाती ओजस्वी सुंदर रचना के लिए उदय जी बधाई,...

MY NEW POST ...काव्यान्जलि ...होली में...

मनोज कुमार ने कहा…

सीधे सीधे जीवन से जुड़ी इस कविता में नैराश्य कहीं नहीं दीखता । एक अदम्य जिजीविषा का भाव कविता में इस भाव की अभिव्यक्ति हुई है ।

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

वीररस से ओतप्रोत अत्यंत सुन्दर रचना.
हार्दिक बधाई..

Surendra shukla" Bhramar"5 ने कहा…

जिस हृदय इर्ष्या , भय का डेरा
निश्चित ही जीत नहीं मिलती -

मिटते परवाने दीप शिखा
हर ज्वाला ज्योति नहीं होती-
प्रिय उदय वीर जी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..मूलभाव सुन्दर ये पंक्तियाँ बड़ी प्यारी लगीं ..पहली बार आप के ब्लॉग पर आ पाए बहुत अच्छा लगा सुन्दर रचनाएं
जय श्री राधे -सत श्री अकाल ..
भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण में भी आयें अपना समर्थन दें ..स्नेह दें

sandeep sharma ने कहा…

हुंकार भरो तो नाहर सी
श्वानों की गूंज नहीं होती-
प्यासे मन की प्यास बुझाये
वो पानी की बूंद नहीं होती



एक झटके में पूरी रचना पढ़ डाली, बहुत ही खूबसूरत लिखी है। रचना तो उत्तम है ही, विचार उससे भी उत्तम और शब्दों का चयन तो अति उतम...