सोमवार, 19 मार्च 2012

फिक्रमंद

क्या कहता है जमाना ,इसकी फिकर नहीं ,
फिक्रमंद   हूँ   ज़माने     के    लिए -


नाजुक  हैं  नंगे  पांव  चला  नहीं   जाता  ,
कोशिश    है  फूल   बिछाने  के लिए -


फर्क  है ,देकर ग़म  मर्शिया भी पढ़ता है ,
हम  मरते भी  हैं तो ज़माने के लिए -


चर्चा-ए-उल्फत न जाने क्यूँ नागवार लगती है ,
हम तो बैठे हैं दुश्मनी भुलाने के लिए -



कायम है दाग कामिल जख्मों के बाद वैसे  

शोले   पेश हैं ,फिरसे जलाने के लिए -


उसकी हंसी में छिपा है दर्द बेसुमार इतना 
वो  हँसता  है , शिर्फ़  दिखाने के लिए -


छूती आसमां को आग भी, सिमट जाती है 
दो  नैन  काफी  हैं  बुझाने  के  लिए -


                                                     उदय वीर सिंह 
                                          

10 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

फिकर तो पूरी है,
जिगर की दूरी है।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

क्या कहता है जमाना ,इसकी फिकर नहीं ,
फिक्रमंद हूँ ज़माने के लिए


बहुत सुंदर भाव अभिव्यक्ति,बेहतरीन सटीक रचना,......

MY RESENT POST... फुहार....: रिश्वत लिए वगैर....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत भावप्रणव अभिव्यक्ति!

रविकर ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति भाई जी ||

अनुपमा पाठक ने कहा…

उसकी हंसी में छिपा है दर्द बेसुमार इतना
वो हँसता है , शिर्फ़ दिखाने के लिए -
वाह!
बेहद सुन्दर कृति!
सादर!

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

वाह!!!!
नाजुक हैं नंगे पांव चला नहीं जाता ,
कोशिश है फूल बिछाने के लिए -

बहुत खूब........
सादर.

Amrita Tanmay ने कहा…

बेहतरीन नज़्म के लिए शुक्रिया..

Amrita Tanmay ने कहा…

बेहतरीन नज़्म के लिए शुक्रिया..

Amrita Tanmay ने कहा…

बेहतरीन नज़्म के लिए शुक्रिया..

सदा ने कहा…

बहुत ही बढि़या।