शनिवार, 28 अप्रैल 2012

निसंदेह

अमरता   की  पौड़ियाँ  बनाने   का  प्रयत्न  
आख़िर  मौत  से, हारना  चाहता  है  कौन  
विवशता  के  नीड़ ,रहना  चाहता  है  कौन  
विफलता का स्वाद,चखना चाहता है कौन  -

विकलता की स्वांस, मरुस्थल  की  प्यास  ,
शूलों  की  शैया  ,सोना    चाहता  है   कौन  -
यत्न  अंगारों   से   हन - हथौड़े   का  सृजन  ,
हथेली  पर  आग , रखना  चाहता  है  कौन  -

विषमता  की  आग ,वैमनस्यता   की  राह ,
टूटी  हुयी नाव से  गुजरना चाहता  है कौन  ,
शंशय और  पीड़ा  का आकारहीन  क्षितिज  ,
उत्सव  के  आँगन,बसाना चाहता  है  कौन  -

वेदना  की  बिछी विसात ,सतत  शह  -मात            
विस्थापन की दुन्दुभी बजाना चाहता  कौन  ,
अभिशप्त  सौंदर्य को  ,दर्पण  तो  सहेजता  है  ,
श्रृंगार    बाँहों   का   बनाना  चाहता  है  कौन -


अपेक्षाओं  के   साथ , आशीष  भी  मिलती है,
वरना -
ईश्वर  को  भी शीश, झुकाना  चाहता है कौन ?   


                                                          उदय वीर सिंह  

18 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

विषमता की आग ,वैमनस्यता की राह ,
टूटी हुयी नाव से गुजरना चाहता है कौन ,

बहुत गहन रचना...
सादर.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अत्यन्त प्रभावी रचना..

Kailash Sharma ने कहा…

वेदना की बिछी विसात ,सतत सह -मात
विस्थापन की दुन्दुभी बजाना चाहता कौन ,
अभिशप्त सौंदर्य को ,दर्पण तो सहेजता है ,
श्रृंगार बाँहों का बनाना चाहता है कौन -

....बहुत सुंदर और सशक्त अभिव्यक्ति...

रविकर ने कहा…

सही बात है |
शुभकामनाएं |

मनोज कुमार ने कहा…

सुविधाभोगी हो गए हैं हम। किसी समस्या पर सत खपाना चाहता है कौन।

मनोज कुमार ने कहा…

सुविधाभोगी हो गए हैं हम। किसी समस्या पर सत खपाना चाहता है कौन।

Dr Xitija Singh ने कहा…

हमेशा की तरह उम्दा रचना ... आभार

Smart Indian ने कहा…

सत्य वचन!

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

विषमता की आग ,वैमनस्यता की राह ,
टूटी हुयी नाव से गुजरना चाहता है कौन ,
शंशय और पीड़ा का आकारहीन क्षितिज ,
उत्सव के आँगन,बसाना चाहता है कौन ।

जिंदगी के ताने-बाने में उलझे लोग,
कौन जी पाता है ढंग से यहां ?

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहुत सुन्दर वाह!
आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 30-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-865 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

रचना दीक्षित ने कहा…

अपेक्षाओं के साथ , आशीष भी मिलती है,
वरना -
ईश्वर को भी शीश, झुकाना चाहता है कौन ?

सच्ची बात. सुंदर भाव.

Satish Saxena ने कहा…

ईश्वर को भी शीश, झुकाना चाहता है कौन

सच तो यही है भाई जी !

वाणी गीत ने कहा…

अभिशप्त सौंदर्य को ,दर्पण तो सहेजता है ,
श्रृंगार बाँहों का बनाना चाहता है कौन !
ईश्वर को भी शीश आशीष मिलने के लोभ में नवाया जाता है !
सच ही है !

Dr.J.P.Tiwari ने कहा…

वेदना की बिछी विसात ,सतत सह -मात
विस्थापन की दुन्दुभी बजाना चाहता कौन ,
अभिशप्त सौंदर्य को ,दर्पण तो सहेजता है ,
श्रृंगार बाँहों का बनाना चाहता है कौन -


बहुत गहन रचना...सच्ची बात. सुंदर भाव.
सादर.

RITU BANSAL ने कहा…

अच्छा लिखा है आपने ..

पुरुषोत्तम पाण्डेय ने कहा…

अन्तह्करण के दार्शनिक प्रश्न, बढ़िया प्रस्तुति.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुंदर शब्दों में विषमता को इंगित किया है ... सुंदर रचना

sm ने कहा…

बहुत सुन्दर, लाजवाब