जानवर तो , जानवर है ,
जानवर हम हो रहे ,
आदमी के साथ वो,
आदमियत , हम खो रहे -
बस्तियों में जंगलों की
आहट सुनाई दे रही ,
अजनवी , हर शख्श है ,
जंगली हम हो रहे -
सुना है जंगलों में कोई ,
कायम नहीं , कानून है ,
समानता अद्भुत मिली ,
हमारे रास्तों , पर चल रहे -
अस्तित्व उनका छिनने को ,
आज हम बेताब हैं ,
जिस डाल पर बैठे हुए हम
उस डाल को कुतर रहे-
हवाले कर चले हम
आग के , उनका शहर ,
जब अपना घर जला तो
देख कितना रो रहे-जानवर से , जंगलों से ,
कितना हमारा वास्ता ,
क्या हम उनसे ले रहे ,हैं
क्या हम उनको दे रहे-
वीरान होते जंगलों से
टूटता , है आसरा ,
आखिरवो जाएँ तो जाएँ कहाँ,
दस्तक शहर को दे रहे -
उदय वीर सिंह .
30 / 08/ 2012
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