सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

इलहाम.... .






















मेरा   बेख़ौफ़   चेहरा   उन्हें 

मवाली     सा      लगता  है ,
नमस्कार  भी   मेरा    उन्हें                     
गाली        सा     लगता    है -

मुझे  दिया  रकीब  ने  नहीं,

ईश्वर    ने ,   मुकद्दर    मेरा,
मुझे     कोई    गिला    नहीं ,
उन्हें   खाली   सा  लगता है-


जज्बात में  यारो आईने ने

कहा, मुस्कराना  अच्छा है ,
मेरा   मुस्कराना   भी उन्हें ,                    
सवाली       सा    लगता  है-

कोशिश थीमेरी जलाने की

मशाल ,  रात    उजारी  हो,
मेरी   रात     का   मंजर ही  ,
उन्हें  दिवाली सा लगता है-

हमने  सिर्फ यही  कहा  था 

आँखों के बाद भी दिखता है ,
न   जाने  क्यों  मेरा बयान 
उन्हें  बवाली  सा  लगता है -

शुक्र  है उनके कूचे  में   मेरे 

अफसाने      ग़ालिब       हैं ,
वरना हर पोशीदा  इलहाम 
उन्हें  खयाली  सा लगता है - 

                  -    उदय वीर सिंह 



                 





8 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति ।

बधाई ।।

Rakesh Kumar ने कहा…

उदय भाई,
आप चंद शब्दों में बहुत गहरी बात कह देते हैं.
आपके भावुक कोमल कवि हृदय को नमन.

समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईएगा.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

करें क्या हम,
रुक्षता,
जीवन में जो आयी।

हम सहज थे,
क्रोध की शिक्षा,
यहीं पायी।

कहेंगे फिर से,
गति यदि पुनः,
डगमगायी।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

शुक्र है उनके कूचे में मेरे
अफसाने ग़ालिब हैं ,
वरना हर पोशीदा इलहाम
उन्हें खयाली सा लगता है,,,,,

आज कुछ लीग हटकर रचना अच्छी लगी,,,,,बधाई,,,,

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Prakash Jain ने कहा…

Behtareen....bahut sundar

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

'मेरा बेख़ौफ़ चेहरा उन्हें
मवाली सा लगता है ,
नमस्कार भी मेरा उन्हें
गाली सा लगता है'
--बड़ी मुश्किल है !

कविता रावत ने कहा…

बहुत-बहुत बढ़िया प्रस्तुति..

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन गजल...
:-)