मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

दरकने लगी जमीन ...



खाली चूल्हे ,
आग दिल में ,
पानी बिन गागर
तन रोगों की खान ,
कोलाहल मानस में ,
घर   शमशान  ,
आशक्ति, पलायन से
विरक्ति , सृजन से
संवेदना  से   दूरी,
नाउम्मीद होने लगे हैं ,
चेतना में थे,
अब बहकने लगे हैं ,
पीर शैलाब हो गयी है ,
वेदना में ,बहने लगे हैं ,
ले लाश कन्धों पर ,लाशों से
गुजरने लगे हैं लोग .....।
बुढा  हो गया है बचपन ,
यौवन से मुकर,दो जून की रोटी
भारी हो गयी है ,
पांव सरकने लगे चढाइयोंसे ...... ,
दरकने लगी जमीन ,
ख्वाब की खिलखिलाहट 
याद आयी  नहीं कि ,
रोने से भी 
वैर, रखने लगे हैं
लोग।

                              - उदय वीर सिंह




9 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सच्चाई को कहती अच्छी प्रस्तुति

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हँसने के कारण नहीं, रोना भी भूल गये हैं लोग..सशक्त रचना।

रविकर ने कहा…

उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवार के चर्चा मंच पर ।।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी लेखनी में दम है।
सार्थक रचना!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

मित्र उदयवीर जी,,,,
सच को कहती उत्कृष्ट प्रस्तुति,,,,,बधाई स्वीकारे,,,

RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,

Asha Lata Saxena ने कहा…

सशक्त अभिव्यक्ति |
आशा

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

वाह उदय वीर जी, बढ़ि‍या.

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बेहतरीन..
:-)

Rakesh Kumar ने कहा…

मार्मिक और हृदयस्पर्शी.
दिल में टीस जगाती प्रस्तुति.