हमदर्द है जमाना कि दर्द दे गया,
कुछ ख्वाब थे अधूरे, कुछ और दे गया-
किस्तों में है चुकानी हर बार जिंदगी,
निभा रहे थे फर्ज कि, कुछ और दे गया-
कुछ शाम सी,सुबह हुयी हम देख न सके,
दबे हुए थे कर्ज में कुछ और दे गया-
कुछ बोझ फैसलों का पहाड़ बन गया,
कम होने के बदले कुछ और दे गया-
हमराह था मुकद्दर मंजिल भी पास थी,
दौर जलजलों का कुछ और दे गया-
कश्ती की तमाम कीलें उखड़ने लगीं उदय,
उबरे कि ठोकरों से कुछ और दे गया-
- उदय वीर सिंह
7 टिप्पणियां:
अजब कायदे हैं,
किसके फायदे हैं।
जीवन का रूप दर्शाती सुंदर अभिव्यक्ति ....
शुभकामनायें ...
कश्ती की तमाम कीलें उखड़ने लगीं उदय,
उबरे कि ठोकरों से कुछ और दे गया-
बहुत भावपूर्ण ग़ज़ल.....
बेहतरीन भावपूर्ण बहुत उम्दा गजल,,,
recent post: वजूद,
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 20 -12 -2012 को यहाँ भी है
....
मेरे भीतर का मर्द मार दिया जाये ... पुरुष होने का दंभ ...आज की हलचल में .... संगीता स्वरूप
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दिल को छूने वाली है यह गज़ल
हर फ़ैसले पे अपने, मोहर की थी ताक़ीद ...
जीने की आरज़ू थी.. क़लम तोड़ वो गया...
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