बुधवार, 19 दिसंबर 2012

दर्द दे गया......


हमदर्द   है   जमाना   कि    दर्द   दे  गया,
कुछ  ख्वाब  थे अधूरे, कुछ और  दे गया-

किस्तों  में   है  चुकानी  हर  बार  जिंदगी,
निभा रहे थे फर्ज कि, कुछ  और  दे  गया-

कुछ  शाम सी,सुबह हुयी हम देख न सके,
दबे  हुए  थे  कर्ज  में  कुछ  और  दे  गया-


कुछ  बोझ  फैसलों  का  पहाड़ बन  गया, 
कम  होने  के  बदले  कुछ  और  दे  गया-


हमराह  था  मुकद्दर  मंजिल  भी पास थी,
दौर   जलजलों   का   कुछ  और  दे  गया- 


कश्ती की तमाम कीलें उखड़ने लगीं उदय,
उबरे  कि  ठोकरों  से  कुछ   और  दे  गया-  

                                     - उदय वीर सिंह 


   







  

7 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अजब कायदे हैं,
किसके फायदे हैं।

Anupama Tripathi ने कहा…

जीवन का रूप दर्शाती सुंदर अभिव्यक्ति ....
शुभकामनायें ...

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

कश्ती की तमाम कीलें उखड़ने लगीं उदय,
उबरे कि ठोकरों से कुछ और दे गया-

बहुत भावपूर्ण ग़ज़ल.....

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बेहतरीन भावपूर्ण बहुत उम्दा गजल,,,

recent post: वजूद,

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 20 -12 -2012 को यहाँ भी है

....
मेरे भीतर का मर्द मार दिया जाये ... पुरुष होने का दंभ ...आज की हलचल में .... संगीता स्वरूप
. .

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

दिल को छूने वाली है यह गज़ल

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

हर फ़ैसले पे अपने, मोहर की थी ताक़ीद ...
जीने की आरज़ू थी.. क़लम तोड़ वो गया...