शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

कर लेते हजार बहाने ...


सिमटती

गयीं दूरियां ,..
फासले बढ़ते गए,
दिलों के ....
शीशा चिपका है संगदिल 
दीवारों से, दिल भरोसे से..|
टूटे कांच ,बदलने  का रिवाज
कायम ,दिल भी बदल जाते...
काश !
शीशे  की तरह .....|
पिघल जाते मोम की तरह, 
कर लेते हजार बहाने 
न टूटने के ,...|
क्यों जम जाते हैं,किसी भी
मौसम में 
रख कर यादों को |
अंतहीन खामोशियों को ओढ़ 
बिना दस्तक ,आवाज 
दे  जाते अतल गहराईयाँ 
दर्द की ,हमदर्द थे ,
बे -दर्द होकर ........|

                            उदय वीर सिंह .


5 टिप्‍पणियां:

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

भाई उदयवीर जी सतश्री अकाल |बहुत अच्छी कविता |

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गहरे उतरता शब्दों का व्यापार।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

सुन्दर कविता,,,,

recent post: वजूद,

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

गहन अभिव्यक्ति

virendra sharma ने कहा…

बढ़िया अभिव्यक्ति भाव और अर्थ की खूब सूरत व्यंजना बिम्ब मनोहर .