बुधवार, 5 दिसंबर 2012

प्रणेता के गान से..


नीड़ , मंदिर    बन    चले ,

समिधा को स्वरूप देते हैं 
प्रणेता      के     गान    से
तूफान   उठा     करते   हैं-


छैनी  हथौड़ों  की  चोट से 
गुजर  कर रूप मिलता है,
वज्र -पत्थर ही  शमशीरों 
को     पैनी   धार  देते   हैं -


सिहर    उठते    हैं   हृदय,   
धरा  व   गगन  दोनों   के,
लौटती है  सुनामी तट से 
पानी   से   दीप  जलते  हैं-

लहरों    पर      हस्ताक्षर

किये       गए        अमिट,
देख   तूफान  भी  अपनी,
राह      बदल      लेते    हैं-

टुकड़े - टुकड़े   में    पैबंद

को ,  गवारा  नहीं   सीना
जमीर   का    ख्याल    है
उन्हें ,चादर  बदल देते  हैं-

न  रहा, न रहेगा  कायम ,

जख्म में खंजर कातिल ,
सदा   पैगाम    आया   है 
अमन का जख्म भरते हैं -

उजड़ने , बसने   का   दर्द
करवट   बदलने  जैसा है
जहाँ   भी    गए   तकदीर
बदल            लेते        हैं  -


बंजर ,  वीभत्स    धरती ,
उपहास    करता   मरुधर
रेतीली  हवाओं के बाढ़ में  
नखलिस्तान    बनते   हैं -

दर्द  का आसमान  इतना

भी,  उन्नत    नहीं   होता ,
प्रेम   के  परवाज   उड़ान 
भरते    हैं   ,  छू   लेते   हैं -

मोहताज     नहीं     किसी 
कलम,कागज रोशनाई के
जमाना लिखता है दिल में  
जन   की आवाज बनते हैं -

                      - उदय वीर सिंह 







3 टिप्‍पणियां:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

मोहताज नहीं किसी
कलम,कागज रोशनाई के
जमाना लिखता है दिल में
जन की आवाज बनते हैं -

बहुत बेहतरीन,,,, सच बात,,

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जो तोड़ तोड़ रचता है, वही बचे का अर्थ समझता है।

रचना दीक्षित ने कहा…

लहरों पर हस्ताक्षर
किये गए अमिट,
देख तूफान भी अपनी,
राह बदल लेते हैं.

अदभुत भाव सुंदर प्रस्तुति.