मंगलवार, 31 जनवरी 2012

अभिव्यक्ति


जब शब्दों के भाव निरुत्तर हैं
क्यों  आई  कविता   बनकर -

      जब प्यास   लगी तब दूर रही
      जब पास हुयी तब प्यास नहीं -
      स्नेह  के   बंध   से   मुक्त  हुए ,
       फिर बंधन  की अब चाह नहीं-

जब सुख चुके अधराधर  हैं
व्यर्थ  बही  सरिता बनकर -

        तिरते  समीर  में  ताप घुला ,
        तपता  अंतस  सद्दभाव  नहीं
        जब बिक चूका है जन-मानस,
        व्यवसाय  रहा , मृदुभाव नहीं -


जब बंध- अनुबंध पिटारों में,
दूर बहुत शशिकर ,दिनकर -


       काया  का मोल तो मिलता है ,
       भावों  का  मोल कहाँ मिलता-
       खिलते है कली,कुसुम गुलशन,
       उत्सर्ग बीज को क्या मिलता-


मूक ,निराशा शापित पथ ,
मांग  रहा  अपना  रहबर -

        शमशान बने हैं शहर , गाँव ,
        स्वर  श्वानो    के   गूंज  रहे -
        बन  गयी  लोथ मानवता है ,
        बे- खौफ , दरिन्दे  नोच  रहे -

संवेदन सून्य,गिरवी जिह्वा ,
वाणी रहती बनकर अनुचर -

******
        अब नगर -वधु ही सीता है ,
        सीता रहती पतिता बनकर -

                               --- उदय वीर सिंह 
                                       31.01.2012  

         

शनिवार, 28 जनवरी 2012

सुयश

अग्नि- पथ से गुजरे हैं ,कदम को बढ़ाये हैं ,
खुशियों   का   आँगन   है    संभावनाएं   हैं -

        अपना  क्षितिज है ,अपना खुला आसमान है ,
        अपनी हैं   रातें ,  शाम  ,  अपना    विहान है -

अपने  हृदय  में  अब  अपनी   भावनाएं  है -


        अपनी  हैं  आँखें  अपनी  चुनर  व  चोलियाँ  ,
        अपने  चमन  में  अपनी  भाषा  व  बोलियाँ  -
गहरी   निराशा  छोड़ वदन   मुस्कराए हैं -

         अपना  है  हाथ  अपने  सृजन की विवेचना ,
          परिकल्पनाओं  में  एक  भारत की अर्चना -

शहीदों के लिखे  गीत , सबने गुनगुनाएं  हैं -


          अर्पण , समर्पण  , त्याग  , सौंदर्य ,शौर्य  को ,
          बोया   तो   पाया   है  स्वतंत्रता  के  बौर   को -


सरदार  दुनियां   का   तिरंगा  के  साये  हैं -


           वन्देमातरम   के    गीत , जय  हिंद  मंत्र  हैं ,
          अचला -   गगन   में  यश , गौरव    अनंत हैं -


जलती  रहे मशाल ,जो शहीदों  ने जलाये हैं -


                                                                      उदय वीर सिंह .

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

** मेरी फरियादी चिट्ठी **

       समस्त  देशवासियों को गणतंत्र दिवस की बहुत -२ बधाईयाँ और शुभ -कामनाएं
                                                         - जय हिंद - 
   
                                  {गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर  मेरी फरियादी चिट्ठी }


मैंने भेजी थी
व्यथा  वेदना ,
पीड़ा के निवारण हेतु 
फरियाद,
मेरी पहचान ,बता दो ,
राशन कार्ड बना दो,
अपाहिज हूँ ,बैसाखी दिला दो ,
रोटी मयस्सर नहीं ,जहर ही सही ,
इच्छा - मृत्यु दिला दो,
कफ़न से न ढक, लाश दस्तावेज है,
नुमायिस घर में रखवा दो ,
तंग शहरों में ,आलीशान महलों की अनुमति है ,
खाली जगह में ,तंग ही सही कमरे बनवा दो,
श्रम ,माल,मजदूर किसानो का,
उचित मूल्य दिलवा दो /
भटक रहा है नौजवान बेरोजगार ,दिशाहीन ,
रोजगार दिलवा दो ,
परतंत्रता का आभास क्यों है स्वतंत्र देश में ,
स्वतंत्रता दिलवा दो /
सत्तानशिनों और शहीदों में फर्क बता दो ,
अपराधी ,बेईमान ,धन -पशु ही काबिल हैं तो ,
शिक्षालय  बंद करा दो /
पिछले साल २६ जनवरी की ,फरियाद का 
चलो ,जबाब आया
 आज -
फरियादी की भाषा 
शुद्ध व शालीन नहीं है ,
नागरिकता, पुष्ट नहीं , 
श्याही में भिन्नता है ,
वर्णों में असमानता है 
फरियादी की मांग और उद्देश्य 
अस्पष्ट हैं ,
लिखावट क्लिष्ट है ,
पुनः प्रेषित करें ,
आपकी मांग 
क्या है ?
आप की परेशानी 
 क्या है  ?
                        
                                उदय वीर सिंह 
                                  25.01 .2012
   
  
       

बुधवार, 25 जनवरी 2012

स्वर प्रीत के

गीत  गायें की मधु रस  बरसने  लगे,
फूल  खिलने  से पहले  महकने लगे -

प्रीत के आगमन की फिजां मद-भरी,,
बिन  साज   के  पग   थिरकने   लगे -

वीथियों  में कदम ,स्नेह के जब  पड़े ,
झूम  खुशियों  के बादल  बरसने लगे -


इन  आँखों  में  सागर सी  गहराईयाँ ,
जब  छलका  तो मोती  बिखरने लगे -


उनके  कदमों  की आहट में संगीत है,
पत्थर  भी  नुपुर  सा  खनकने   लगे-


दिल  लगाया नहीं , टूट  जाने का  डर ,
इसको महफूज  गलियों  में रखते रहे - 


                                        उदय वीर सिंह.
                                         25 .01 .2012 

  

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

रोटी

आशा है, 
चाहत  है ,लक्ष्य है ,
प्रेम है, पूजा है 
सम्मान व ईमान है /
बिन तेरे ,
सून्य,निर्जीव ,पार्थिव है तन ,.....
नीरस जीवन ,
संस्तुति नहीं करता ,किसी 
 ऐतिहासिक ,प्रागैतिहासिक इतर लोक का /
नहीं भर सकता उदर,
कनक ,मोती ,माणिक  ,
वैभव से /
शायद इसीलिए 
मगरूर है ,संगदिल है ,
तंग दिल है रार की जड़ /
तू ओ फ़साना है ,
जिसका नहीं मिलता हल ,
ढूंढा गाँधी,आंबेडकर ने ,मार्क्स ,मनीषियों ने ,
हिटलर ,मुसोलनी,नेपोलियन की जमात ने 
पर असफलता ही हाथ /
छिनने -बचाने का
 उपक्रम जारी है ,
फिर भी ,वांछित है 
न्यारी है ,
हर जीव को प्यारी है ,
खुदा ने बनाया तुमको,
बस इतनी ही आरजू है -
तू खुदा  न बन ......../
                                       उदय वीर सिंह  
                                        19 /01 /२०१२. 
   

सोमवार, 16 जनवरी 2012

सौम्यता

फूलों  की  वीथियों  में ,शूलों  को  पाए हैं ,         
जख्म  इतने  गहरे हैं ,भूले  न  भुलाये हैं -      


टूटे   थे  पत्ते  कितने  तरुअर  की  साखों  से ,
आँधियों   के  काफिलों  ने  कैसे  विखराए हैं -


मुसव्वीर  थे   ख्वाबों   के    कितने  उकेरे हैं  ,
घोलने   को    रंगों    को,  आंसू    मिलाये  हैं   


तासों   के   पत्तों  से   महल  क्यों  बनाया  था  ,
हाथ  कितने   ख़ाली  हैं, आशामां के  साये  हैं  -


कहने को तो दुनिया सारी अपनी सी लगती है  ,
अपनों  की  दुनियां  में हम , कितने  पराये  हैं -


                                                   उदय वीर सिंह  

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

दिल्ली से दिल्लगी

              दिल्ली   की  गलियों से 
              दिल्लगी     हमारी     है -
              पर्दा      बे       पर्दा     है,
              हसरत        उधारी     है -
गुलशन  ख्यालों  का ,ख्वाबों की मंजरी 
उन्मुक्त   हाथों  में  आशाओं  की   बंसरी -


             बिखरी   लटों को  अपने
             प्यार    से      संवारी   है- 
मधु  का जखीरा है ,जगमगाता  हीरा  है ,
पागल बनाये जो सियासत की मदिरा है -


            जलती   मशाल   जान,
            पतिंगों    ने   वारी    है-
रोये  हैं  ज़ख्मो - गम , दिल्ली न रोई  है ,
रोशन चिरागां दे ,एक पल भी न सोयी है -


            नफ़रत और प्यार  का ,
            मुकम्मल   लिखारी  है- 
बसने ,उजड़ने का , दर्द -ए- फ़साना  है ,
दरिया ए- दिल  का ,दीवाना  जमाना है -


             मल्लिका -  ए - रोशनी ,
              दुनिया      उजारी     है-
आश्रय , यतीमों   का ,जहीनों  का   पालना ,
संस्कृतियों का संगम एक भारत का आईना-


              युगों तक सलामत दिल्ली ,
              शुभ  कामना     हमारी   है -


                                                          उदय वीर सिंह .  



सोमवार, 9 जनवरी 2012

खाक -ए- गजल

ख़ुशी   है  जिंदगी   उधार    की   है  हुजुर ,
रब   कहाँ   होता  , जो      अपनी    होती -

हर   स्वांस   का  हिसाब  रखता  है  कौन ,
टूटने के वक्त सोचते हैं थोड़ी और  मिलती -

फिक्र   है  देश  की  उन्हें   इतनी  मुक़द्दस ,
गोया  भूल  गए  की  किसकी   कर  रहे हैं -

भाव   भ्रष्टाचार   का ,  बढ़    गया   इतना ,
बिकवाली ईमानदारी की मन्सूख  हो गयी-


डूब  जाता है आफ़ताब ,वजूदे मशाल क्या ,
उनके  आँखों  में  समंदर  है ,ऐसा कहते हैं -


लुटने  को    तैयार ,  लुटाने  को  भी  उदय ,
उलझन     है  ,  लूटूं    क्या    लुटाऊ   क्या -


छलकी   एक  बूंद  का  अक्स  ही काफी  है ,
बताने     को      दास्तान   -   ए -   समंदर-


                                        उदय वीर सिंह .   

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

दसमेश पिता के वारिश हम ..


    वाहो !,वाहो ! गोबिंद सिंह जी, आपे गुरु चेला 

          पावन गुरु -पर्व पर समस्त देश- विदेश वासियों को लख-लख वधाईयां ,प्यार ,शुभकामनायें ,मीरी[शक्ति  ] और पीरी[ज्ञान ] के सद्द- वाहक   बनें .....


             ***      ***      ***

स्वांसों ,निगाहों,हर धड़कन  में मेरी दाते
जीवन नहाया तेरे प्यार  में  -


अर्पण ,समर्पण सारे जीवन का दर्शन दाते 
वारु  मैं जीवन तेरी राह में -


आह न निकले कटे गर्दन हमारी दाते 
रखना सदा तूं  पनाह में -


रोम-रोम ऋणी है तेरा बख्सा  है अमृत दाते ,
जीवन सफल है दरबार में -


सरबंस दानी दाते,दुनियां में न कोई शानी,
दीनों ,धर्म के उपकार में - 


मीरी और पीरी दाते ,जीवन की थाती मेरी ,
किश्ती बचायी मझधार से-  


                                               उदय वीर सिंह .





बुधवार, 4 जनवरी 2012

गुरु गोविन्द सिंह {आपे गुरु चेला }

                                 पावन गुरु पर्व की  समस्त देशवासियों को लख-लख बधाईयाँ ,प्यार अभिनन्दन  !
                                              [  संक्षिप्त  अनुशीलन ]

 शिख -धर्म के  दसवें गुरु का आगमन मूलतः ऐसी वेला में हुआ जब - जोर, जुल्म ,पीड़ा से कराहती मानवता ,असहनीय  वेदना, अंतहीन दुःख ,बेबसी, लाचारी में आबद्ध ,उद्धार की प्रतीक्षा में,  अंतहीन अंधेरोंमें  डूबी करुण पुकार के सिवा कुछ  नहीं था उसके लबों पर ,आतंकी अत्याचारी  धन ,धर्म, धरती, अस्मिता पर, निर्लज्जता ,निर्ममता से आघात कर रहे थे , निरंतर जनेऊ का संग्रहण ,वजूद ही मिटाने का उपक्रम , बलात धर्मान्तरण का निर्लज्ज नियोजन ,पराकाष्ठा पर था /
           भेद  भाव  ,छूत -अछूत सामाजिक वैमनस्यता  परवान थी ,एकता की भावना ,समर्पण की भावना ,त्याग की इच्छा कहीं सून्य में विलीन थी ,कुछ उत्साही जन आगे आये पर उनकी सीमित सोच ने उन्हें गर्त में    डाल दिया मदान्धों ,वंचकों  जिनका  चरित्र है , मात्र संभाषण,सत्ता , अवसर पाते ही धर्मान्तरित हो गए, विदेशी आततायियों  के समर्थक  बन, हमारी संस्कृति  के कट्टर  दुश्मन बन गए , अनेक बड़े छोटे राजाओं ,जमींदारों पुरोहितों   ने पद- पदवी   के लिए धर्म और इमान  बदल लिया , बच गए  तो निरीह जन ,जो संगठन के, सच्चे  नेतृत्व ,के  आभाव में,लाचार अधोगति को प्राप्त हो रहे  थे / कोई  नहीं था ,मुस्ताक-ए- मुकद्दर कहने वाला की एक  नूर के बन्दों पर इतना जुल्म क्यों  ? दिशा-हीन थी जनता ,हिन्दू जनमानस किकर्तव्यविमूढ़......../
       बालपन  में अपने पिताश्री से उचारा प्रश्न ,{जब कश्मीरी पंडितों ने गुरु तेग बहादुर जी से अपनी रक्षा  हेतु याचना  करने आये }की  ये लोग क्या चाहते हैं ? तब नौवें पातशाह ने कहा था -किसी बड़ी आत्मा की क़ुरबानी / तब गुरु गोबिंद सिंह का बयान था - तो आप से बड़ा कौन है इस लोक में  /
       गुरु तेग बहादुर सिंह  साहब ने कहा था  - जाओ  कह दो मुग़ल बादशाह से- मुझे धर्मान्तरित कर ले ,पीछे   सारा हिंदुस्तान मुसलमान हो जायेगा  / जो  आततायियों का दिवा- स्वप्न बन कर रह गया / मिरी पीरी दे मालिक को कोई ताकत मुसलमान नहीं बना सकी ..........कुर्बान हो गए  हिंदुस्तान की संस्कृति के लिए /
        आगे दसवी पातसाही के स्वरुप में आप आये , इन्शानियत की राह में ,ज्ञान और  शक्ति का संचार कर -
                                                 "  मानुख की जात सब एकै  पहिचानिबो "
का संकल्प  ले  ",चिड़ियाँ  ते मैं बाज तुडाऊ"   का  जज्बात , "एक  लाख तों एक  लडाऊ"  को मैदान -ए- जंग सिद्ध  भी कर दिया / [ देखें चमकौर साहिब का इतिहास ] किसी भेद-भाव  से दूर  प्रेम की भाषा ,मनुष्यता का संयोजन ,गौरव का पाठ सामान रूप से पढाया / एक विजेता के रूप में एक विशिष्ट पंथ का निर्माण किया -
                              "जो तो प्रेम खेलन का चावो, सिर  धर तली गली मेरे आओ "
यही  नहीं  मेरे सतगुरु  ने कहा -
                                         " जे मारग पैर  धरिजे ,सिर दीजै, कांह न कीजै "
 अनेकों जंग लड़े ,विजय पाई ,इन जंगों में यही निर्विवाद रहा  की राजे -रजवाड़े ,जमींदारों ने गुरुओं का विरोध किया ,इनके विरुद्ध मैदान -ए-जंग  आमने- सामने युद्ध  लड़े / धन्य हैं गुरु गोबिंद सिंह ,करुना के सागरविजय के बाद भी उन्हें माफ़ी दी ,बैर नहीं साधा .......धर्म और संस्कृति का पाठ पढाया  /
       आततायियों का कहर थमा नहीं ,गुरु गोबिंद  सिंह  के खालसे का सैलाब  भी कहाँ रुका ,रूह-ए-मौत कांप गयी , सिक्खी  और सिक्ख  नहीं डिगा अपनी राह से / मासूम चार  पुत्र - " बाबा अजित सिंह जी ,बाबा जोरावर सिंह जी ,बाबा फ़तेह सिंह जी ,बाबा जुझार सिंह जी " जो   ७-११  साल की  उम्र के बिच रहे  गौरवमयी इतिहास के शिखर- विन्दु बने  /  दादा  गुरु तेगबहादुर सिंह जी के नक्स-ए- कदम पर चल, पिता के हमराह बनकर दो ने दीवार की नीव  में  चुना जाना स्वीकार कर , दो ने चमकौर साहिब के मैदान में जहाँ इतिहास के अनुसार ,पांच लाख फ़ौज ने घेरा डाला था ,आमने -सामने लड़ कर वीरगति   पाकर अपने दूध का, संस्कृति का कर्ज अदा कर  दिए  . /  माँ -बाप ,पत्नी ,पुत्र, कुटुंब सब बिखर गया ,अगर नहीं बिखरे तो गुरु गोबिंद सिंह  /   गुरु साहब  का कारवां  निरंतर चलता रहा ....../ उन्होंने घोषित किया -
                                  " खालसा मेरो रूप है खास , खालसे में मैं करूँ  निवास "
    खालसा  का अर्थ  - "विशुद्ध " { PURE } से है ,मंतव्य  यह की सन्मार्ग ,सदाचारी ,वलिदानी,  परोपकारी ,समर्पित राह  का अनुगामी मेरा खालसा ..../
          उन्हों ने पवित्र अमृत  का पान करा कर , खालसे को अमर कर दिया, समता ,सद्भाव  प्रेम समर्पण ,शक्ति सद्ज्ञान  का समन्वयन कर , पंच्प्यारों  का सृजन  कर  इलाही स्वरुप दिया / स्वयं  उनसे  दीक्षित  होने की याचना की और पञ्च -प्यारों के सिक्ख  बने ----
                         " वाहो,वाहो  गोबिंद सिंह जी आपे गुरु चेला "
        हम उनके सच्चे वारिस बन सकें, दाते हमें वह शक्ति दे , आत्मबल दे , उसके बताये रस्ते पर  चल सकें ,
अनुकरण कर सकें ,आत्मसात कर सकें ---
                देहि   शिवा   बर  मोहे  है ,  शुभ   करमन  तों   कबहूँ  न  डरों
                न टरों अरि सों ,जब जाय  लड़ों  ,निश्चय कर अपनी जीत करों
                जब आप  ही औध निधान बने ,अधिहिरण में तब जूझ   मरों-
        रोम - रोम ऋणी   है ,ये जमीं  आशमान  ऋणी है,  तेरी राह में  दाते ! चल कर ,फ़ना होने  का अवसर  हर जन्म में   मिले / मेरी यही अरदास है /
                  समस्त देशवासीयों  को  गुरु पर्व  की शुभकामनाएं ,गुरु का अमृत भरा प्यार, अनवरत वर्षता रहे ..भींग  जाये तन मन  ,अछुर्ण  रहे हमारी धरा  ,संस्कृति   गौरव ....द्रोहियों से  पापियों से /
                                     वाहे  गुरु जी दा खालसा,  वाहे गुरु जी दी फ़तेह !


                                                                                                         उदय वीर सिंह
                                                                                                         04 /01 /2012 


                 
     






     
    
          

रविवार, 1 जनवरी 2012

गमन-आगमन -अभिनन्दन

मेरे प्यारे देश-वासियों ,देश-विदेशसे शुभचिंतकों, मित्रों,  नूतन वर्ष मंगलमय  हो ,सुख और समृद्धि ,शांति और सद्दभाव , प्रेम और करुना  लिए नव- वर्ष सर्वजन को पुष्पित ,पल्लवित करे ,यही कामना है मेरी / वर्तमान   वर्ष  को प्यार भरे पुष्प-गुच्छ दे ,सद्द्भावानाओं के साथ अलविदा ......../

                           प्रशंसा     में   तेरी  कहूँगा  मैं इतना ,
                           आये   थे  हंसते  ,चले  जा   रहे    हो-


           यादें     बहुतेरी    हैं   दामन   में,   तेरी,
           स्मृतियों  में  शामिल  किये जा रहे हो--


                           काल-चक्रों  की गतियाँ  निरंतर  रहेंगी ,
                           आशाओं    के     दीपक   जलाते   रहेंगे ,
                           अखिल व्योम की वीथियों में समय संग ,
                           सृजन    को    हृदय    में   सजाते  रहेंगे -


             अतीत   में   जा   समाने   से  पहले ,
              नवल  वर्ष को तुम  दिए  जा रहे हो - 


                            ब्रह्मांड   की    हर    गुफाओं    में  आशा ,
                            निराशा  गमन  कर चले हर क्षितिज से ,
                            समय  की शिला पर मधुर गीत लिखना,
                            स्नेह की राग निकले जीवन की बंसरी से -


             कब्र में बीज जा कर,कोंपल संवारे ,
             सृजन  के  उजाले  दिए  जा रहे हो-


                            शुक्रिया मेरा कहना उन गुजरे पलों  को  
                             त्रासदी  में  भी  हँसने का जज्जबात था  ,
                             नवल    रश्मियों का  स्वागत स्नेह   से    ,
                             आने वाला प्रभात है वो गुजरा प्रभात था  -


               विपरीत   रास्ते   हैं  सृष्टि  -  समय    के  ,
               वो पूरब जा रही है,तुम पश्चिम जा रहे हो  -


                                                            उदय  वीर  सिंह  
                                                               31-12-2011