फिजां कह रही है, देख ! कैसे वक्त
करवट ले रहा है
ब्रह्मवेत्ता , छद्म - वेत्ता की राह में ,
ज्ञानी कर वसूल रहा है-
सन्यासी धर्म की आड़ में कितनी
संजीदगी से छल रहा है -
तोता बांचता इन्सान का भाग्य
ज्योतिषी सो रहा है-
तक़दीर बन गयी है आवारा बादल
कर्म उपेक्षित रो रहा है -
तिलस्म पर कब कायम जिंदगी का वजूद
यथार्थ से मुख मोड़ रहा है-
शांति का वाचक ,बारूद की गोंद में
अंगारे बो रहा है -
विडम्बना है -
ढोर डंगरों सा समाज,आज भी शालीनता से
इनका बोझ ढो रहा है -
-उदय वीर सिंह
2 टिप्पणियां:
देश गर्तमय, हम साक्षी हैं।
ढोर डंगरों सा समाज,आज भी शालीनता से
इनका बोझ ढो रहा है -
...यही आज का विडम्बना है...बहुत सटीक अभिव्यक्ति..
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