रविवार, 24 फ़रवरी 2013

दो मन के ..



कल सूरज ऊगा था
पूरब की ओर
आज प्रतीक्षा थी उसकी
कल का पता नहीं ,
उगेगा  या नहीं ......|
शायद कोई कृष्ण !
पुनः  गांडीव उठा ले
ढक दे व्योम,
छद्म साँझ  हो जाये
किसी के वध 
निहितार्थ ......|

*****
प्रतिवद्धताओं में
अटकी, टूटती साँस
आत्मग्लानी में निमज्जित
संचेतना ,
मौन रहने का द्रोह
दे रहा है यातना,
क्यों न ले सका
कठोर निर्णय ....?
कुलघातियों का साथ दे
शर- शैया पर शयन होगा
यह नियति तो न थी
किसी भीष्म की  .....!

*****

मौन का द्रोह
बंद करता कपाट ,
अभिशप्त  होने को !
वेदना का पर्याय,वत्सला का हृदय
क्या कभी संवेदित होता है ?
जिया  है ?
कभी किसी कर्ण की
वेदना को  .....
किसी कुंती ने ....?

                                             - उदय वीर सिंह



7 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मौन रहता क्यों नियन्ता,
क्या जगत का दाह दिखता भी नहीं?
मूर्ति क्यों बनती प्रकृति यह,
क्यों सुखद कुछ काल लिखता भी नहीं?

deepti sharma ने कहा…

आपकी यह बेहतरीन रचना सोमवार 25/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.inपर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

वाह!
आपकी यह प्रविष्टि कल दिनांक 25-02-2013 को चर्चामंच-1166 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बढिया, बहुत सुंदर

अज़ीज़ जौनपुरी ने कहा…

Gafil sara vkt hai ,gafil sari jingi.
patti muh par bandh kar,kaise hogi bandgi, ati sundar

सदा ने कहा…

वाह बेहतरीन ...

कविता रावत ने कहा…

कुछ यक्ष प्रश्नों का कभी भी माकूल जवाब नहीं मिल पाता है ..विवशता की अपनी अलग ही दास्ताँ है ..
मन के द्वंध को बखूबी पेश किया है आपने..बहुत बढ़िया..