रेशमी हाथों से -
वो काँटों में महफूज था
रेशमी हाथों से मसला गया
अंधेरों मेंथा जीस्त का हर फ़न
कमाल रोशनी में छला गया
डाल जो छूटी अंगूर की,साकी
से पैमानों में ढलता गया
हर घूंट कुंवारा था, प्यास बन
जलाता गया , जलता गया
जो देखा नकाब से ज़माने को
वो पीछे , जमाना आगे था,
उतरा नकाब, जमाना पीछे ,
था , काफिला बनता गया-
देखते थे आँखों में ज़न्नत
जब रोशन रहीं, परवाने रहे,
बेनूर क्या हुयीं जमाना दूर से
बेकार हैं ये ,कह चलता गया-
लिखता रहा हुश्न की तारीफ ,
जांनिसारी भी कबूल थी
उम्र भर का साथ ही माँगा था,
एक पल न रुका चलता गया -
उदय वीर सिंह
4 टिप्पणियां:
लिखता रहा हुश्न की तारीफ ,
जांनिसारी भी कबूल थी
उम्र भर का साथ ही माँगा था,
एक पल न रुका चलता गया -उम्दा अभिव्यक्ति,,,
RECENT POST बदनसीबी,
काँटों ने कब छल सीखा है,
कहता भी है, चुभता भी वह।
ये सब वक्त=वक्त की बात है
सुबह का सूरज शाम को ढलता गया .....
सच्चे अहसास !
जो देखा नकाब से ज़माने को
वो पीछे , जमाना आगे था,
उतरा नकाब, जमाना पीछे ,
था , काफिला बनता गया-
बहुत बहुत बढ़िया...
सादर
अनु
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