साये हैं हमसफ़र इनके,
रहबर हो लेते हैं
दो पल के भीड़ वो तमाशाई
रोज बसती हैं उजडती हैं
इनकी बस्तियां
रोज खोदते हैं कुंवे
बुझाते हैं प्यास ...
काश ! संसद में इनका बल होता
कह पाते कि
हम बेघर बंजारे नहीं
इनसान हैं ,
हमवतन हैं हमसफ़र हैं
इक्कीसवीं सदी के ....
हमें भी, रोटी कपड़ा मकान की
जरुरत है ...
क्यों चला जाता है
तेरे विकास का काफिला दूर से
हमें देख कर.....
- उदय वीर सिंह
7 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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बंजर जैसा हो रहा, संसद का अब हाल।
नेताओं ने देश का, लूट लिया सब माल।
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आपकी इस पोस्ट का लिंक आज बुधवार 13-03-2013 को चर्चा मंच पर भी है! सूचनार्थ...सादर!
विकास का काफिला कहाँ सबको साथ लेकर चल पा रहे हैं, न जाने कितने लोग पीछे छूट गये।
सादर जन सधारण सुचना आपके सहयोग की जरुरत
साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )
ये काफिला तो अंधा भी होता है.. सही कहा है..
बंजारे जीवन की दशा दर्शाती
सुन्दर प्रभावी रचना
बंजर धरती बंजर जीवन , अहसाश बंजर हो गया ,क्या कहें इस देश की ........सुन्दर भावों से आच्छादित प्रस्तुति
विकास का काफिला जिन के हाथ है ... वो अपनों से आगे किसकी सोच सके हैं अब तक ....
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