ज़माने को एतबार था तुम्हारी नुरे-नज्म पर
आज नज्म और ज़माने में फासला क्यूँ है -
इन्तखाब करती थी ज़माने को अपनी सी लगी
दर्द को दर्द लिखता था अब मुकरता क्यों है -
तंग राहों के, रंज लिखता था बेख़ौफ़ यारा
मंजर वही हालात बदतर मुक़द्दस कहता क्यूँ है -
माना की तेरा आना-जाना बेटोक है राजमहलों में
तूं दफ़न कहाँ होगा आखिर भूलता क्यूँ है -
तेरी नज्म की जादूगरी होठों पर लहराती रही
अब क्या है तेरी बेबसी बता, छुपाता क्यों है -
कितने जख्म गहरे, ज़माने के सीने में छिपे हुए
अपने मामूली से जख्म दिखाता क्यूँ है -
- उदय वीर सिंह
4 टिप्पणियां:
जीवन को हल्का फुल्का बना कर जीवन के गहरे जख्म छिपा जाते हैं मतवाले..
बहुत उम्दा भाव पूर्ण सुंदर प्रस्तुति,,
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-03-2013) के चर्चा मंच 1193 पर भी होगी. सूचनार्थ
खुबसूरत रचना , होली की शुभकामनाएं
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