शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

सहर न हुयी...


रात    मेरी    अँधेरी,   सहर   न   हुयी
पीर   बढ़ती   गयी   मुक्तसर   न  हुयी  -

हम  चिरागों  के  दर  से  बहुत  दूर  थे

चाँद  भी  सो  गया   ,चांदनी  घर  गयी  -

हम   तो   मजबूर   थे  रास्ते  न  मिले

क्या सितारों को भी कुछ खबर न हुयी  -






मेरी   आवाज    भी    लौट  आई   मुझे
मेरी   रब  से  दुआ  भी  असर  न  हुयी  -

जुगुनू    भी    भटकते    रहे     रातभर 

रौशनी    तो    हुई   कारगर   न    हुयी

                                 -  उदय वीर सिंह




7 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सार्थक अभिव्यक्ति!
साझा करने हेतु आभार!

अरुन अनन्त ने कहा…

वाह आदरणीय वाह क्या मुसल्सल ग़ज़ल कही है, सभी के सभी अशआर दिल को छू गए लाजवाब हार्दिक बधाई

दिगम्बर नासवा ने कहा…

मेरी आवाज भी लौट आई मुझे
मेरी रब से दुआ भी असर न हुयी -..

Vaah ... Gazab ka bhav samete ... Lajawab sher ...
Kamal hai poori gazal ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

खूबसूरत गज़ल

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत प्यारी ग़ज़ल...

सादर
अनु

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

खुबसूरत गजल
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प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कम शब्दों में सारगर्भित बात.. बहुत ख़ूब।