रविवार, 9 जून 2013

मांगता है रौशनी किसी और से -

शराफत  पसंद  इमारतें  बंद  हैं  मुद्दतों  से 
शायद शरीफ शराफत से बावस्ता नहीं  रहे
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कर  इजाफा  चाहतों में , कह  रहा  गंतव्य  तेरा
मुमकिन नहीं जो आज है, कल उसी को सर करोगे-

संगमरमरी  बदन  के  पढ़ते  रहे   कसीदे 
शिनाख्त  करता  साया , संगमरमरी नहीं होता -
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चले घर से फरमायिशों, ख्वाहिशों की इमदाद थी  
कहीं दूर रह गयीं  हसरतें ,ख्वाहिशें गाफिल न हुयीं - .
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बुलंदियों  का  चाँद  लेकर  क्या  करूँगा  मैं 
वो हर रोज  मांगता है  रौशनी किसी और से -

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फलसफों की बिसात क्या  है दौर -ए - तलाश
यकिनन आज कायम है कल बदल जायेगा -

                                          उदय वीर सिंह 


1 टिप्पणी:

रचना दीक्षित ने कहा…

बुलंदियों का चाँद लेकर क्या करूँगा मैं
वो हर रोज मांगता है रौशनी किसी और से -

बहुत सुंदर बात कही. पराश्रित होना अपने स्वभाव से विमुख करता है.