रविवार, 7 जुलाई 2013

स्पर्श

                                                                                     
 स्पर्श .... 

उसे
पर नहीं
पग मिल जाते

दर्द नहीं,
दर मिल  जाते,                        
गूंगी हुयी जुबान  को
स्वर मिल जाते.....
तार- तार ही सही
मा का आंचल,
पकड़ कर चलने को पिता के                                                          
कर मिल जाते......
टूटी भीत के ताक पर
चश्मा रखा है
बड़ा वीर पहनता है
बीजी का जरीदार दुपट्टा
मलबे में फंसा है
कलाईयाँ सुनी रह गयीं
भर  नजर देख लेता
कोई इश्वर मिल जाते
बंधु - बांधव, सखा सब ओझल  हुए
गए दूर...
चलना तो चाहता है
मालूम नहीं गंतव्य,
किधर जाये ,
जहाँ
राह कोई
रहबर मिल जाते....
अपनों का  घर
मिल जाते .......

                                     - उदय वीर सिंह

7 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मैं भी कितना भुलक्कड़ हो गया हूँ। नहीं जानता, काम का बोझ है या उम्र का दबाव!
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पूर्व के कमेंट में सुधार!
आपकी इस पोस्ट का लिंक आज रविवार (7-7-2013) को चर्चा मंच पर है।
सूचनार्थ...!
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वाणी गीत ने कहा…

काश मिल जाती इसे भी घनी छाँव !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चाह मिलेगी, राह मिलेगी,
नहीं अकेली आह मिलेगी।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

गहन भाव लिए सुंदर प्रस्तुति

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

वाह जी !!! बहुत उम्दा लाजबाब प्रस्तुति,,,

RECENT POST: गुजारिश,

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति...

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर रचना
बहुत सुंदर