मंगलवार, 20 अगस्त 2013

ऱोज जख्मी होते हैं हाथ...

जब भाँड़ों की जमात गा लेती है महफिलों में 
बिरुदावली जयचंदों की ,
करमवीर भूखा पेट खामोश रात,में रो लेता है -
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बनाता है शीशमहल ऱोज जख्मी होते हैं हाथ
रात में जख्मों को सहला हल्दी लगाता है  
तहबन पर रोटी के ख्वाबों में सो लेता है -
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कर्ज से मुक्त होने को शहर आया था 
घर बीमार जोरू ,जवान बेटी छोड़ आया था 
अपनी लाचारियों पर आँखे भिगो लेता है -
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खुशियों का झोला दे आता हर माह लाला को 
मजबूरियों का गट्ठर ले आता है   
खाकर मुट्ठी भर चबेना पानी पी लेता है -
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भाई का हफ्ता, लाला के ब्याज पर मेहरबान है ख़ुदा 
रुक नहीं सकता कभी ,
पांच रूपया फुटपाथ का हवलदार ले लेता है -
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                                                  -  उदय  वीर सिंह 



2 टिप्‍पणियां:

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर
बहुत सुंदर

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आज के परिवेश पर गहरे उतरती पंक्तियाँ।