मंगलवार, 27 अगस्त 2013

तमाशबीन होकर रह गया हूँ ...

बंधे हैं हाथ वरना तुम्हें हक़ न देते बर्बादी का
तमाशबीन होकर रह गया हूँ -

मजबूर हूँ की इनसान हूँ ये मेरी खता
कमजोर होकर रह गया हूँ -

जानवर और इन्सान में फर्क कितना है ,
ये सोच कर रह गया हूँ -

वैसे शमशीर के दाग बयां करते हैं डंगरों के हस्र,
देख कर रह गया हूँ -

याद रख  देश प्रेम की प्यास खून भी पीती है,
ये कल्पना नहीं हकीकत कह रहा हूँ -

फट जायेंगे कान के पर्दे दहाड़ों दे नापाक 
भारत जिंदाबाद  कह रहा हूँ -

                                         -उदय वीर सिंह।

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

देखता हूँ, पड़ रहे आघात अनगिन,
हाथ स्थिर, बस खड़ा हो देखता हूँ।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

क्या बात वाह!