मुसाफिर गुमशुदा हूँ मुझको नाम तो मिले-
मेरे हिस्से की थोड़ी धरती ,आसमानतो मिले-
खोयी हैं अपनी रातें
ख्वाबों को खो दिया -
देकर गुलाब सबको
काँटों को ले लिया-
मंजिल मेरी अधूरी ,अंजाम को मिले-
क्या थे गुनाह मेरे
बे- सलीब हो गया
जो रकीब था हमारा
वो हबीब हो गया-
फरियाद मुन्तजिर है भगवान तो मिले -
मुट्ठी भर धुप छाँव है
वो भी उधार की
माँगा सुबह से मैंने
शामें करार की -
खिलना बिखरना चाहे वो मुकाम तो मिले-
एक बार मुड़ के देखो
बंदिस हजार हैं
तस्दीक जो मेरी हो
सहरा बहार हैं -
इंतजार में हम बैठे , पैगाम तो मिले -
- उदय वीर सिंह।
6 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी रचना
latest post: सब्सिडी बनाम टैक्स कन्सेसन !
संकेतों में बातें करते,
हमें बता दो ऐसी भाषा,
कैसे जीवन मूल्यांकन हो,
समझा दो आकर परिभाषा।
क्या बात! वाह!
खुबसूरत अभिवयक्ति......
खूब...
एक बार मुड़ के देखो
बंदिस हजार हैं
तस्दीक जो मेरी हो
सहरा बहार हैं -
इंतजार में हम बैठे , पैगाम तो मिले -
बहुत सुन्दर.
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