शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

गुलाब कहते रहे -

रेशम में लिपटे काँटों को
हम गुलाब कहते रहे -
नीव खोदी ही नहीं गयी मितरां
मकान बनते रहे-
जो बन न सका जुगुनू भी,रात का
उसे माहताब कहते रहे -
जो कर गया टुकड़ों में वतन
सिरताज कहते रहे -
शुमार कर दिया आतंकवादियों में जिनको
वो इनकलाब कहते रहे -
झूल गए फांसी पर मर्द हंसते -हंसते
ना-मर्द वाह- वाह कहते रहे -
सारा जीवन हिंसा में ही गुजर गया
वो अहिंसा का पाठ करते रहे-
सोचा नहीं अवाम की दर्दो आवाज क्या है
 सौदाई  कारोबार करते रहे-

                         -  उदय वीर सिंह  

7 टिप्‍पणियां:

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहुत ख़ूब!

Anupama Tripathi ने कहा…

आज का यथार्थ ...गहन रचना ...

Anupama Tripathi ने कहा…

आज का यथार्थ ...गहन रचना ...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आपकी रचना में कड़वा सच सामने आ गया है।

virendra sharma ने कहा…

अजी क्या बात है क्या अंदाज़ है आपका। क्या ज़ज्बा और मर्तबा है आपका और रचना के तेवर का।

virendra sharma ने कहा…

रोचक विस्तार विज्ञान का वैदिक आलोक में।

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

बहुत बढ़िया
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