चाहता है आदमी क्या जमाना दे रहा है -
इंसान को दगा तो , इंसान दे रहा है -
कोशिश तमाम उम्र की परवान न हुई
इंसानियत के सेज पर शैतान सो रहा है -
महफिलें दर महफिलें रौनक तमाम है
बेईमान हंस रहा है , ईमान रो रहा है -
हर शख्श परेशां है यक़ीनन फूल के लिए
शिद्दत से अपने बाग़ में बबूल बो रहा है-
बुजदिली की आग कुछ तेज हो गयी है
जलाकर अपना घर कितना खुश हो रहा है
- उदय वीर सिंह
4 टिप्पणियां:
सुंदर !
इस समय की है कविता /ग़ज़ल जो वर्षों से सामायिक ही लगती रही है !
सोचने को मजबूर करती रचना !
सच है, समाज की यही स्थिति हो गयी है।
क्या बात वाह! बहुत ख़ूब!
अरे! मैं कैसे नहीं हूँ ख़ास?
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