मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

बागी नहीं हूँ मैं ...



मितरां  किसी भी राग का रागी नहीं हूँ मैं 
कहता  हूँ  अपनी   बात , बागी नहीं हूँ  मैं -
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निशान  दिख  रहे  हैं, अपनों  ने  है  दिया
दागा  गया   हूँ    यार  , दागी  नहीं  हूँ   मैं -
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सच   बोलने  का  हमसे   गुनाह  हो  गया,
कैसे  कहेंगे  हम  , अपराधी  नहीं   हूँ   मैं-
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हर्फों  में  दिल की धड़कन, होती  नहीं बयां,
सुनाता  हूँ  दिल  की  बात ,किताबी  हूँ  मैं -
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मैकदे  का   देखने   जाता  हूँ   मैं  मिजाज
साकी  को  देखता  हूँ ,शराबी  नहीं  हूँ   मैं-
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                                ---   उदय वीर सिंह


शनिवार, 27 अप्रैल 2013

टूटती वर्जनाएं,

मर्यादा
की परिभाषाएं
गढ़े कौन......
अतिरंजित होते मूल्य ,
मूल्यांकन की  बात करे कौन .....
टूटती वर्जनाएं,
विखरती लक्षमण रेखाएं
सत्यान्वेषण करे कौन ....
जब मौन हैं होंठ
भीष्म के .....
बंधक हैं भुजाएं
घर में गांधारी
ह़र सभा में धृतराष्ट्र
बैठा है  .......

               ---   उदय वीर सिंह

   

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

लहरों के सफीने ..



जख्म  जिन्दा  हैं , तो   पीर  होगी  ही
रात   आई     है ,    सवेर     होगी     ही-

माँगा  नहीं  नसीब ,लिखा  है  खून  से

आये करीब हैं ,वो  भी करीब  होगी ही-

लहरों   के  सफीने पर  जीने  की  अदा  

दौर - ए -  मुश्किल,  मुफीद   होगी  ही-

वक्त -बेवक्त  हम  होंगे  यादों  के  सफ़र

इश्क वाले हैं मुहब्बत की बात होगी ही-

                           ---  उदय वीर सिंह  


मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

लावारिस ...कबीर

















क्या   हो   गया   है  शहर   के   मिजाज  को
गले  मिलते   रहे , अब   हाथों  में दस्ताने हैं -

नफ़ा -  नुकसान   में  आदमियत   खो  गयी
कई   बार  सोचता है घर  का  पता बताने में-

एक छतरी  दो  यारों  की  बारिस  गुजर गयी
एक  शहर  मुफीद  नहीं  है रिश्ता निभाने में -

हम  जहीन  तालीमदां हो गए, या  बे-तालीम
पल  भी  न लगा कस्रे -मुहब्बत को गिराने में -

पड़ी चौबारे में किसी कबीर की लावारिस लाश
कोई तंजीम न आई शमशान तक ले जाने में -


                                         
 -  उदय वीर सिंह



 



रविवार, 21 अप्रैल 2013

क्या ओढेगा क्या बिछाएगा ..?


   
                       क्या ओढेगा क्या बिछाएगा ..?


अश्क बहा लोगे तो क्या दर्द का
सिलसिला  ख़त्म  हो  जायेगा -

बहाते रहे हैं सियासतदान अक्सर
क्या उनकी राह तू चल पायेगा -

अश्क को खून बनाने का जूनून रख
बहायेगा  तो   मंजिल   पायेगा - .

पांव की बेड़ियाँ कभी मंजिल देती नहीं
जब टूटेंगी  तभी दौड़ पायेगा-

सूखी रोटियां भी नहीं ,पानी में भिगोने के लिए
बहाने जीने के कब तक बनाएगा -

सोच आखिर शिर से पांव तक
शहर से गाँव तक तेरा क्या है
क्या ओढेगा क्या बिछाएगा .....

                       --   उदय वीर सिंह

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

पूंजी-निवेश

पूंजी-निवेश
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आपने पैदा की है पुत्री 
पुत्र  का दर्द क्या होता है  ,
आप उससे अनजान हैं ,
रात- रात भर सोये नहीं हैं 
उसकी परवरिस में कौन सा गम ढोए नहीं हैं .....
बिमारी में दवा की है ,
खुशहाली के लिए दुआ की है 
फसादों में गाडफादर की भूमिका
अदा की है ......|
पालन -पोषण में कोई कमी नहीं छोड़ी है 
बेटे ने अपने हाथ से रोटी नहीं तोड़ी है  
मिर्जई पहना,सूखी रोटी खाए हैं     
फेल हो जाता था ,नाजुक हाथ लिख नहीं पाते थे,
मोटी रक़म लगी ,परीक्षा पास कराये हैं |
कौन नहीं जनता ,
नौकरी कैसे मिलती है  ...?
तब बेटे को कामयाब बनाये हैं.....|
पूंजी लगायी है 
आज हमारे दिन आये हैं ,
आखिर हम दे रहे हैं 
नाम, कुल ,गोत्र ,घर व वर .......
स्पष्ट मेरा सन्देश है ,
दुल्हन बाद में ,
पहले दहेज़ है .....|
मेरा बेटा,
मेरा पूंजी -निवेश है ......|

                  -- उदय वीर सिंह .






.....तो साथ चल



चल  सको  तो   साथ  चल
सूनी    पड़ी     हैं   विथियाँ -
उपकार   कर  जीवन  हँसे
कब    रोकती  हैं   रीतियाँ -
उर्मियों   से   उर   भरा  हो
संवर   जाती   हैं  बस्तियां -
हों माझी- पतवार निश्छल
उबर   जाती  हैं  किश्तियाँ-
खिलते हैं  फूल  जब   जब
महकती   हैं     संस्कृतियाँ -

                  -    उदय वीर सिंह  .

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

गूंगा बोल लेता है .....



मेरे    यार  !  अजूबा     देख 
कि    गूंगा    बोल   लेता   है   
हाथ   लूले   से  हैं   फिर  भी
घूँघट      खोल      लेता     है 
**
पड़ोसन  कह  रही  थी  कल

बिन   गागर  या  गंगा  जल
मन में  मिश्री  घोल लेता  है-
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गधों  कुत्तों   व  कोयल   को  

वक्त  बे  -  वक्त   पायल   को
सुरों     में    तोल    देता   है-
**
सुनी   बस्तियों     में   स्वर

उदय   होते    नहीं    अक्सर 
नब्ज मुर्दों की टटोल लेता है-
**
गुलाब  कभी  बोला, नहीं बोला 
दिल के राज खोला  नहीं खोला
पर दिल से रिश्ता जोड़ लेता है-     

                      -  उदय वीर सिंह    



रविवार, 14 अप्रैल 2013

आई बैसाखी





आई   बैसाखी  दिल  में  कितने  उजाले  हैं,

सौगात   लायी   है ,  हम  सौगात   वाले  है-

मेहनत , पसीना   बनके  आया  सफीना है ,
खेत  मेरे  काशी - काबा  फसलें   मदीना है      
फसल  बोई  प्यार  की  प्यार के निवाले हैं -

दौलत  व सोहरत  शान दाते  ने  बख्सी है
साजी  नवाजी  अपनी  मजबूत किश्ती है
भंवर  जो मिली तो साथ साहिल  हमारे है -

बैसाखी  में  खालसा को अमृत नवाजा था

बलिदानियों  से  शीश   रक्षा  में माँगा  था
उसकी तपस्या से हम आज भारत वाले हैं -

दिल  मत   तोड़ना  , दैन्यता   को  तोड़ना ,

जरुरत   पड़ी   तो   धार  गंगा  की  मोड़ना 
विषमता  में  जीत  की  हमारी  मिसालें हैं -

                                        -  उदय वीर सिंह 








 





शनिवार, 13 अप्रैल 2013

बैसाखी एक समिधा ....

  बैसाखी एक समिधा ....

           युगों से चली आ रही प्राचीन परम्पराओं के निर्वहन में वैसे समस्त ऋतुओं का व उनमें आने वाले पर्वों का अपना अलग महत्त्व है | इस तथ्यात्मक सत्य  से इनकार नहीं किया जा सकता ,फिर भी ग्रीष्म ऋतु के आरंभिक चरण के सोपानों में आने वाले पीत पर्वों का अद्वितीय आलोक है | नवल संवत्सर का आरंभ  [हिन्दू जंत्रीनुसार]  चैत्र माह के शुक्ल पक्ष { प्रतिप्रदा से } होता है, हिन्दू श्रद्धालु ,शक्ति -साधक नवरात्रि का व्रत, पूजन बड़ी शुचिता व भावमयी प्रीत से देवी दुर्गा की आराधना करते हैं | हर्षौल्लास सहित भक्तिमयी वातावरण सृजित हो जाता है , मौसम भी अभी खुशगवार रहता है |
  भौगोलिक स्थिति भी अनुकूलन में रहती है ,रबी की फसलें लगभग २५-३० डिग्री के तापमान में पक कर कटाई हेतु तैयार हो जाती हैं | किसान अपनी मेहनत के  प्रतिफल की आश लगाये बैठा, खुश होता है की सुनहरे सपनीले दिन आ गए है ,स्वागत की तयारी करता है ,खुशियों, समृद्धि व सपनों को साकार करने वाले यज्ञ की  इसी भौगोलिक समिधा को हम बैसाखी कहते हैं |
    किसान को अपनी कमाई का मूल्य मिलना है ,भविष्य की योजना बनानी है , बेटे-बेटियों की पढाई ,युवा होते मुंडे -कुड़ियों की कुडमाई , नए आवश्यक मशीन कल पुर्जों को खरीदना  बदलना , घर की रंगाई पुताई ,मरम्मत के साथ ही हीर के लिए ,पाजेब , कंगन की हसरत भी बलवती होती है ,बैसाखी मन में एक नवा उत्साह लेके आती है ,सारा जनमानस कितनी बेसब्री से प्रतीक्षा करता है ,सहजता से उनके चहरे के भावों को पढ़ , जाना जा सकता है  | प्रकारान्तर से खुशहाली का उत्साहित वातावरण ,प्रकृति का आशीर्वाद पाकर तरंगित हो उठता है |
    ऐतिहासिकता का  अत्यंत संवेदनशील दीप  १८ वी  शताब्दी में  प्रज्वलित होता है | हिदुस्तान व  हिन्दवी जनमानस   की पीड़ा  असह्य हो चली थी ,  अपनी संपत्ति ,अपनी आबरू, अपना देश अपना धर्म ,पराया होने लगा था, अपनी स्वांस पर भी ताले  लगे हुए थे अगर कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी |  विदेशी अत्याचारियों आतंकियों ने  भारतीय जनमानस के जीवन नर्क  बना दिया था  | जिस तरह से भारतीय अभिजात्य वर्ग जो सामान्यतः सुविधाभोगी हुआ करता है ,तुष्टिकरण में  अटल विस्वास रखता  है ,बड़ी तेजी से हवा का रुख भांप अपनी  पीठ  हवा की तरफ कर रहा था ,धर्मान्तरित हो पाला बदल रहा था ,मुकर रहा था अपने धर्म और दायित्वों से,  फिर सामान्य जनमानस  का क्या ? वह तो  घनीभूत  पीड़ा के झंझावातों में घिरा हुआ था ,प्रतीक्षा थी  उसे किसी मसीहा की जो भंवर से किश्ती को निकाले  | अवसरवादियों की पौ बारह थी, मंत्री, मंसबदार  का ख़िताब पाए जा रहे थे ,अपने ही समाज धर्म को पददलित करने में जरा भी उन्हें संकोच नहीं रहा , सामाजिक ही नहीं आर्थिक स्थिति भी हाथों से जाती रही | निरीह देशवासी पिस रहे रहे थे |
     लाचारी ,वेवसी व  दैन्यता को  कहीं कोई सूक्ष्मता से ध्यानस्थ हो देख रहा था तो वे थे दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज | जन मानस को आत्मबल  ,विस्वास ,समता व शौर्य की आवश्यकता थी ,निहितार्थ "  मानुष  की  जाति सब  एकै पछानिबो " सूत्रवाक्य को रग -रग  में  समाहित कर ,एक राग, एक देश ,एक भेष के भाव  व संकल्प से व्सज्जित कर दिया,समस्त भारत उद्वेलित हुआ | आतंकी लुटेरे विदेशियों के विरुद्ध सैन्य उद्दघोष  सन- 1756  स्थान आनंदपुर साहिब दिन बैसाखी को  खालसा  के जन्म ने परिणिति पाई | पुरातनता की क्षीण शक्ति पर मजबूत हठ, ने अतिशय शोर व बाधा डाली पर ,नव जीवन के पांधी- सिख मनुष्यता ,अखंड देश की प्रीत से बंधे देश के कोने कोने से कमजोर साधन व्यवस्था के वावजूद निश्चित स्थान  व नियत समय पर उपस्थित हो , देश धर्म की यज्ञशाला में अपने शीश की समिधा को अर्पित  किया | खालसा की उत्पत्ति होती है ,           गुरु जी द्वारा भरी सभा में देश-धर्म हितार्थ  शीश माँगे जाने पर गुरु परीक्षा में खरे उतरे ,महान  बलिदानी  पंज प्यारे  1 - दया  सिंह -लाहौर  2 -धर्म सिंह -हस्तिना पुर  3 - मोहकम सिंह -जगन्नाथपूरी  4 -हिम्मत सिंह -गया 5 -साहिब सिंह -बीदर को  दीक्षित  [अमृत पान ]  करा अमरता बख्सी व स्वयं  उनसे पाहुल  [अमृत /दीक्षा ]ग्रहण कर   विस्व के प्रथम सर्वमान्य गुरु अंगीकार किये गए जो  स्वयं  गुरु भी है और चेला भी |
         वाह -वाह गोबिंद सिंह ,आपे गुरु चेला |
इस तरह बैसाखी ब्रहमांड की अनोखी घटना की गवाह बनी |हिंद्स्तान की रक्षा का  गौरव सूत्र  पहन देदीप्यमान हुई |  एक जीवंत  त्याग व शौर्य की निहारिका जन्म ले अवांछित प्रभूतों  को भष्मित करने में समिधा बनीं |
         सुख और खुशहाली के दौर में अप्रतिम उत्साह तथा तन्मयता से  सिक्ख  जनमानस उदारता पूर्वक विनम्रता  की गाथा का उनवान तो किया ही है ,जब जब संकट का दौर आया अपने त्याग, बल ,निष्ठा को बड़े आत्म विस्वास के साथ अर्पित किया है ,सुख और दुःख साँझा किया है |
       भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का दावानल अगर आकर लेता है तो वह सर्व प्रथम सिक्खी  क्षितिज ही है |अंगरेजों को सदैव  शंसय  रहा इस कौम पर,जैसा की आकडे कहते हैंविभिन्न नरसंघारों  फाँसी  ,कालापानी, कूका आन्दोलन ,अकाली लहर के शहीद, बज- बज घाट के शहीदी के कुल 4771  में से 3697  सिख हैं | जलियाँ वाला बाग़ नरसंहार[ सन 1 3 अप्रैल 1919 ]  अमृतसर की सभा बैसाखी पर्व पर ही आहूत की गयी थी |भारतीय जनमानस अब कतई फिरंगियों को स्वीकार नहीं करना चाहता था , विद्रोह का भाव जनांदोलन का रूप ले रहा था | जिस बैसाखी के संकल्प भाव ने खालसा को जन्म दिया , वही भाव ,सन्देश उत्सर्जित होने वाले थे ,पंजाब का जनमानस फिरंगी  तिरोहण के शंखनाद का  व्रती हो गया  | बैसाखी के समर्पित संकल्प में  ब्रिटिश सामराज्य की चूलें हिला देने की अकूत क्षमता थी |  सभा में उपस्थित निहत्थे  जनसमूह [ बूढ़े ,बच्चे नौजवान ]कोई भेद नहीं ,चारों तरफ के रास्तों को बंद कर  गोलियों से भून  दिया गया ,   ....
       वह इतिहास का काला धब्बा,  मानवता  को शर्मसार करने का कृत्य,पवित्र खुशियों का दस्तावेज बनती बैसाखी के  दिन ही अपने अंजाम को प्राप्त हुआ | लगभग 1300  लोगों की  निर्मम हत्या  हुयी |
   फिर भी अपने अछे बुरे दिनों को ,सहेजते  समेटते निरंतर बैसाखी आगे बढती गयी ,यादें रह गयी नयी भावना  के प्रवास को जगह देती गयी | आज भी मेले लगते हैं लगेंगे  कहीं श्रद्धांजलि के , कही स्नेह- सौगात के पुष्प बिखरते हैं | हमें  इसके  भावों में ढल ,ग़मों को भूलने  की आदत तो डालनी ही होगी , करना होगा निर्माण के सार्थक यत्न,चयन करने होंगे अपने  रंग ,वैसे तो बैसाखी के रंग तो हजार हैं | 
                 तेरे इश्क की फितरत  है नूर सी
                      जफा  करते  हैं, वफ़ा ही  मिलती है-

                   
                   

          
     
   
                     


बुधवार, 10 अप्रैल 2013

प्रतिमान गढ़ना...


विननम्रता के प्रतिमान गढ़ना
नम्रता   के  नव  - गान  पढ़ना
शील    की    मधु  - मंजरी    से
प्रेम -  रस    का    पान   करना -

शत्रु   के   कर   शश्त्र  सज्जित

सौहार्द्र   से  हो  जाएँ  लज्जित
चरित्र    की    लालित्य   गागर
सौर्य    व     सम्मान      भरना-

स्वाभिमान   की   कारा   मिले

तज   उन्माद  की   स्वच्छंदता
विद्वेष     से    सहकार    सुन्दर
मनुष्यता   से     प्यार   करना-

अभिशप्त   हो  जाता  है  जीवन

नद     सुखते    जब    स्नेह   के
संकल्प    ले   निज   चक्षुओं  से
दो बूंद ही सही प्रतिदान  करना-

अखंड   अदम्य  देश  के   नरेश

शक्तियां   समस्त    प्रशस्त्र   हों
आवाम ने दिया सम्मान इतना
तुम आवाम का सम्मान करना -

संभाव्यता  के  पथ  सृजित  हों   

नैराश्य    का   उनवान   वर्जित
जब   विकल्प    ही   विद्रोह   हो
निज  शीश  हँसकर दान करना -  


                    -    उदय वीर  सिंह    


रविवार, 7 अप्रैल 2013

उन्हें उल्फत नहीं आती -


मुझे   मालूम   है   उनकी   फितरत
वफ़ादारी     की     हलफ    लेते    हैं
वतनपरस्त   हैं  इतने   कि  अक्सर
गद्दारी    का      इल्जाम    आता  है -

उनकी दोस्ती का अंजाम मुझे मालूम
आता  नहीं  काँटों  से निभाना हमको ,
वो  जख्मों  का  शहर  लिए  फिरते हैं
प्यार में  भी, खून  का  इनाम आता है  

मुक़द्दस   सोच    पर   ताले   काबिज
विचारों   पर   बेसुमार   पहरे  कायम
फितरते-  नफ़रत  तस्लीम करती है
रस्क  है  उल्फत  से,  याराना   कैसा -

पेश  की  चादर- ए-गुल , खिदमत में
पैगामे-ए-मोहब्बत  की हसरत लिए-
हम  भी   नादान  थे  कितने  दौर  के
हमें नफरत , उन्हें उल्फत नहीं आती-

वरक    से    अल्फाज    मिट    जाते 
जब   भी   लिखा  प्यार  के अफसाने
कही  दूर  से आवाज  दस्तक  देती है 
गुमशुदा   को   आवाज   क्यों  देते हो -

                                    उदय वीर सिंह 



                         





शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

सहर न हुयी...


रात    मेरी    अँधेरी,   सहर   न   हुयी
पीर   बढ़ती   गयी   मुक्तसर   न  हुयी  -

हम  चिरागों  के  दर  से  बहुत  दूर  थे

चाँद  भी  सो  गया   ,चांदनी  घर  गयी  -

हम   तो   मजबूर   थे  रास्ते  न  मिले

क्या सितारों को भी कुछ खबर न हुयी  -






मेरी   आवाज    भी    लौट  आई   मुझे
मेरी   रब  से  दुआ  भी  असर  न  हुयी  -

जुगुनू    भी    भटकते    रहे     रातभर 

रौशनी    तो    हुई   कारगर   न    हुयी

                                 -  उदय वीर सिंह