शनिवार, 27 जुलाई 2013

गुलाब में रखा -


अपनी हसरतों  को  जनाब
 किसी   ने  ख्वाब  में  रखा -
भूल   जाने     का    डर  था 
किसी  ने  किताब  में   रखा -
रहे  करीब  इतना  रगों   में
किसी   ने  शराब   में   रखा -
लग  जाये  न  नजर ज़माने
की किसी ने हिजाब में रखा-
हुस्नो-इत्र की कायनात देकर
गुल ,किसी ने गुलाब में  रखा -
मांगी  सिजदे  में  रहमतों की
दुआ कुबूल  फरियाद में रखा -
छू न पायें रेगिस्तान की गर्मियां
सतलज  कभी चिनाब में रखा -
छीन  लेगा  कोई बेदर्द जालिम
यूपी   किसी  ने पंजाब में रखा -

                                   उदय वीर सिंह

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

आलोकित कर-

*****
भूल  पराये  - अपनेपन   को
प्रेम ,  हृदय  में   संचित  कर -

मनभावन  आनंद   भरा  वह
दृश्य क्षितिज पट मंचित  कर-

मिटा सके न दुरभि  संधियाँ
प्रलेख  पटल पर अंकित कर -

जागो जागे  जग ज्योतिर्मय 
एक अंशुमान आलोकित कर- 

भ्रम  नैराश्य  दीन -  दैन्यता
छाई   मानस  में  खंडित  कर -


              
                               उदय वीर सिंह



रविवार, 21 जुलाई 2013

ये बात अक्सर होगी -





ये बात अक्सर  होगी -


हाजिरी , गैरहाजिरी   से  बदतर  होगी 
जुबान शहद  नहीं  खारो  नश्तर  होगी -

बदलने   का   जज्बा    था  ज़माने  को 

कौन बदला न  कहें तो गल बेहतर होगी-

टूटे  तारे  का दर्द  कभी महसूस तो करो 

कोई गंगा  उसे  कभी   मयस्सर होगी -

पीर  ,उफनाई   नदी  सी  उफान पर है 

कभी दूरी  किनारों  की,  मुक्तसर होगी -

तीरगी  में   रौशनचिराग  बुझने को है 

किसी  तूफान  की  उस पर नजर होगी -

छोड़े तख्तोताज सिकंदर को भी एक दिन

मितरां  ज़माने  में ये बात अक्सर  होगी -

                                  - उदय वीर सिंह   

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013













 जिंदगी    तू    नए   सवाल  देना
मिल   सकें  उनके   जबाब  देना
ढूंढ़ने   को  ताउम्र   मकसद कोई
रास्ते          लाजवाब          देना-
**
यूँ   तो   हर  तरफ  नागफनी  ही
उगे        दिखाई         पड़ते     हैं,
खुरदरी   जमीन    में    ही   कहीं
खिलता     हुआ     गुलाब     देना-
***
कोई    दिलचस्प    आईना    जो
दिल     से      बात     करता   हो
झूठे  रिश्तों   की    फेहरिस्त  में
एक     सच्चा     ख्वाब        देना-
***
उतर    जाना     मेरी    मुडेर    पर
आहिस्ता    शबनमीं     दबे    पांव,
शोर बहुत  है  गली में नक्कारों का
फिर  भी मुझे हौले से  आवाज देना -

                      -  उदय वीर सिंह

 


गुरुवार, 11 जुलाई 2013

कविता मुझसे अनजान रही....

किसने    कहा    कवि    मुझे
कविता मुझसे  अनजान रही
अभिव्यक्ति बस रोक न पाया 
पाकर   नाम    अनाम    रही -

लिखने  का  उपक्रम  करता
कलम  प्रवाह में उलझ गयी -
अदृश्य  शैल   की  ठोकर में
व्यथित हुयी वो विरम गयी -

अतिवेगन में  मजबूर  चली
देश - काल   का  भान  गया -
बह   कर आई  कहाँ   किधर 
अनजान भँवर में भींच गयी-

शब्दों   के   फंदों  में  बंधकर
उलझी  कलम  व्यतिरेकों में
जमीं   हुयी   कालों  में  पीड़ा
तोड़ अनुबंध  चुप- चाप बही- 


अशेष  प्रेम  का  भव्य  कोष
निहितार्थ सृजन के गीत भरे
रस - रस गाउ चाह मेरी  थी
प्रत्याशित,लय निष्प्राण रही - 


निर्बाध  अक्षत  निर्द्वन्द  रही
छंद - वद्ध  , कभी  मुक्त  रही-
कारा , प्राचीर  स्वीकार्य नहीं
अवसाद  में  चाहे  शाम  रही - 


चाह बहुत सी उर संचित  थी
बन नद  प्रवाह  बह  जाने को-
संवेदन  की  नाव  के  नाविक
सब  चले  छोड़  गुमनाम रही-



                              - उदय वीर  सिंह 
 .         
















 


 









 




मंगलवार, 9 जुलाई 2013

पता बता देना -

वसीयत.  भेज  देंगे   हम
पता  बता देना -
लिखकर  के अपना  नाम
मेरा  मिटा  देना -
हवाओं पर लिखी है नज्म
उसे हटा देना ...
इकरार के वरक खाली हैं
हलफ़ उठा  लेना ...
घबराओ जब भी अंधेरों से
यादों के दीये जला लेना...
अश्क आयेगे जो याद आयेगी
आँचल में उन्हें छिपा लेना ....
जब भी मायूस तनहा हो ,
आईने में मुस्करा लेना ......|

                   -   उदय वीर सिंह 

रविवार, 7 जुलाई 2013

स्पर्श

                                                                                     
 स्पर्श .... 

उसे
पर नहीं
पग मिल जाते

दर्द नहीं,
दर मिल  जाते,                        
गूंगी हुयी जुबान  को
स्वर मिल जाते.....
तार- तार ही सही
मा का आंचल,
पकड़ कर चलने को पिता के                                                          
कर मिल जाते......
टूटी भीत के ताक पर
चश्मा रखा है
बड़ा वीर पहनता है
बीजी का जरीदार दुपट्टा
मलबे में फंसा है
कलाईयाँ सुनी रह गयीं
भर  नजर देख लेता
कोई इश्वर मिल जाते
बंधु - बांधव, सखा सब ओझल  हुए
गए दूर...
चलना तो चाहता है
मालूम नहीं गंतव्य,
किधर जाये ,
जहाँ
राह कोई
रहबर मिल जाते....
अपनों का  घर
मिल जाते .......

                                     - उदय वीर सिंह

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

चश्मा

धुंधली सी, 
दिखती है तस्वीर ,
जितना पोंछती है आँचल से 
गीली हो जाती है ,
आंसूओं से बार- बार ...|
चश्मा लाने  गए बेटे  की  
कई दिन से प्रतीक्षा में ,
पथरायी आँखों
टूटे हुए मकान की खिडकियों से 
देखती है, 
वीरान सुनसान रास्तों 
की ओर ....|
नहीं आया है ....|
बहू कहती है -
अम्मा !
नजर कमजोर हो गयी है |
अच्छा  ही है |
देखने को  रह गया है ....
उजड़ी बस्तियां ,खँडहर 
शैलाब ,शव ,कांपते पहाड़ ....
बहू की सूनी मांग 
ह्रदय में रहने वाला 
अब फ्रेम में समा गया है 
छा गया है 
अंतहीन अंधकार 
जिसमे  अब 
चश्में की 
जरुरत नहीं होगी  ......|
  
                  --  उदय वीर सिंह