पीयूष की प्रत्याशा में,विष पीता रहा हूँ मैं -
हर शब् की सहर होती है इतना तो यकीन है
ले रौशनी की आश अंधेरों में जीता रहा हूँ मैं -
कुछ अदावत रही पैरों से पत्थरों की यक़ीनन
ले जख्म गहरे पांव सफ़र करता रहा हूँ मैं-
फुर्सत न मिली कहीं बैठ कर रो लूँ हालात पर
अश्कों की तरह आँखों से बस ढलता रहा हूँ मैं -
ये जान कर भी ,मधुमास आ चला जायेगा
उँगलियों पर आने के दिन गिनता रहा हूँ मैं-
उदय मालूम नहीं परदेसी का पता हमको
स्नेह की पाती फिर भी लिखता रहा हूँ मैं -
- उदय वीर सिंह
4 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर लिखते हैं आप
आप पढ़ते भी होंगे ना कभी कभी :)
कुछ अदावत रही पैरों से पत्थरों की यक़ीनन
ले जख्म गहरे पांव सफ़र करता रहा हूँ मैं-
...वाह..बहुत मर्मस्पर्शी और भावपूर्ण रचना...
भाव, भावना , मुक्तक छंद ,सभी अनूठा है !
सियासत “आप” की !
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पीयूष की प्रत्याशा, संभवतः यही जीने का आधार है।
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