शनिवार, 22 मार्च 2014

मशविरा दे रहे हैं -

फूलों की बस्ती में काँटों की महफ़िल 
हुस्न को इश्क़ का मशविरा दे रहे हैं -

फुटपाथ  हासिल  था  मरने से पहले 
बाद मरने  के  अब मकबरा दे रहे हैं -

खुदगर्ज   का   कैसा  अंदाज  आला
हुनरमंद  को  सिरफिरा  कह  रहे हैं -  

निकले  मोती  पलक  से मजबूर  हो
कैसे  नादार को मसखरा  कह रहे हैं -

बैठे  होने  को  नीलाम जिस छाँव में 
दर्दे -बाजार  को आसरा  कह  रहे हैं -

रौशनी में गवारा एक  कदम भी नहीं  
अंधेरों के  आशिक़ अप्सरा  कह रहे हैं -

                             उदय वीर सिंह 











5 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सामयिक सच कहा है, यही हाल बना हुआ है।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

रौशनी में गवारा एक कदम भी नहीं
अंधेरों के आशिक़ अप्सरा कह रहे हैं,

सुंदर गजल ...!

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Neetu Singhal ने कहा…

किसी सब्जा ज़ार में मांगी दो गज जमीं..,
इक उम्र की तिश्नगी है औ सहरा दे रहे.....

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहुत ख़ूब!