वत्स !
तेरे हठ से
सियासत की बू आती है
बचपन का
अल्हड़पन नहीं ...
तेरी मांग के आगे ,
माँ को शूद्र,पिता को वैश्य
बनना पड़ता है ....
यही नहीं कुटुंब को
क्षत्रिय का किरदार मिलता है
और तुम होते हो ब्राम्हण की केंद्रीय भूमिका में
अभिशप्त परिणामों से अनजान .
बेवाक हंसी रचने में
या फिर रोने में ....
तेरे चाँद से खेलने की जिद में खो जाता है
आसमान ...
बंधक हो जाती है धरती .
मिलता है परजीवियों का आतंक,
उनके दिये घाव ,
देते है असहनीय अनंत पीड़ा
त्रासदी में होती हैं सदियां
बहता है लाल ,श्वेत रक्त अविरल
सुख जाती हैं
धमनियां व सिराएं,
बड़ी मुश्किल से मिलता है
कोई गुरु गोबिंद सिंह
त्याग का
प्रतिदान बनकर .....
दूसरों की वलि से पहले
अपनी वलि का
संकल्प संस्कार ले ..
उदय वीर सिंह
4 टिप्पणियां:
सुंदर !
कविता में परिवार के रूप में गहरी बात।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (07-03-2014) को "बेफ़िक्र हो, ज़िन्दगी उसके - नाम कर दी" (चर्चा मंच-1575) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना
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