शुक्रवार, 23 मई 2014

बुलबुलों के आशियाने


बुलबुलों के आशियाने  
वो हमें देते रहे - 
बैसाखियों  के रहगुजर  हो 
वो हमें कहते रहे  
सहरा में उनके बहता पानी  
अश्क हम पीते रहे -
कुछ कम लिखी थी बदनसीबी 
यार बन लिखते रहे -
यारा प्यास उनकी खून की है 
जाम बन ढलते रहे -

                         उदय वीर सिंह 

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (24-05-2014) को "सुरभित सुमन खिलाते हैं" (चर्चा मंच-1622) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

Vandana Sharma ने कहा…

Bahut hee umdaa