फूलों की बस्ती में काँटों की महफ़िल
हुस्न को इश्क़ का मशविरा दे रहे हैं -
फुटपाथ हासिल था मरने से पहले
बाद मरने के अब मकबरा दे रहे हैं -
खुदगर्ज का कैसा अंदाज आला
हुनरमंद को सिरफिरा कह रहे हैं -
निकले मोती पलक से मजबूर हो
कैसे नादार को मसखरा कह रहे हैं -
बैठे होने को नीलाम जिस छाँव में
दर्दे -बाजार को आसरा कह रहे हैं -
रौशनी में गवारा एक कदम भी नहीं
अंधेरों के आशिक़ अप्सरा कह रहे हैं -
उदय वीर सिंह
हुस्न को इश्क़ का मशविरा दे रहे हैं -
फुटपाथ हासिल था मरने से पहले
बाद मरने के अब मकबरा दे रहे हैं -
खुदगर्ज का कैसा अंदाज आला
हुनरमंद को सिरफिरा कह रहे हैं -
निकले मोती पलक से मजबूर हो
कैसे नादार को मसखरा कह रहे हैं -
बैठे होने को नीलाम जिस छाँव में
दर्दे -बाजार को आसरा कह रहे हैं -
रौशनी में गवारा एक कदम भी नहीं
अंधेरों के आशिक़ अप्सरा कह रहे हैं -
उदय वीर सिंह
5 टिप्पणियां:
बहुत ही गहराई है इन पंक्तियों में, हमें क्या मालूम की मरने के बाद मकबरे का क्या आराम?
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (27-05-2014) को "ग्रहण करूँगा शपथ" (चर्चा मंच-1625) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
गहरी सोच लिये है यह गज़ल।
अति सुन्दर...
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