सोमवार, 26 मई 2014

मशविरा दे रहे हैं

फूलों की बस्ती में काँटों की महफ़िल
हुस्न को इश्क़ का मशविरा दे रहे हैं -

फुटपाथ  हासिल  था  मरने से पहले
बाद मरने  के  अब मकबरा दे रहे हैं -

खुदगर्ज   का   कैसा  अंदाज  आला
हुनरमंद  को  सिरफिरा  कह  रहे हैं -

निकले  मोती  पलक  से मजबूर  हो
कैसे  नादार को मसखरा  कह रहे हैं -

बैठे  होने  को  नीलाम जिस छाँव में
दर्दे -बाजार  को आसरा  कह  रहे हैं -

रौशनी में गवारा एक  कदम भी नहीं
अंधेरों के  आशिक़ अप्सरा  कह रहे हैं -

                             उदय वीर सिंह












5 टिप्‍पणियां:

Vandana Sharma ने कहा…

बहुत ही गहराई है इन पंक्तियों में, हमें क्या मालूम की मरने के बाद मकबरे का क्या आराम?

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (27-05-2014) को "ग्रहण करूँगा शपथ" (चर्चा मंच-1625) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

Dr.J.P.Tiwari ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

Asha Joglekar ने कहा…

गहरी सोच लिये है यह गज़ल।

Vaanbhatt ने कहा…

अति सुन्दर...