कब तक रुकते कर में आंसू
जब बह निकले दो नयनों से-
भींगा
जब बह निकले दो नयनों से-
भींगा
आँचल वेदन- बदली
जब चाहा सावन के झूले
फुहारी ऋतू , अंगार हुयी
दानव -ज्वाल बुझा कब कैसे
बिखरी ओस की बूंदों से-
दानव -ज्वाल बुझा कब कैसे
बिखरी ओस की बूंदों से-
मानिंद कांच, उर टुटा तो
थे हाथ पराये , पत्थर भी
बेड़ी डूबीं मजधार भंवर
पतवारहीन हो अपनों से -
थे हाथ पराये , पत्थर भी
बेड़ी डूबीं मजधार भंवर
पतवारहीन हो अपनों से -
चन्दन -वन की राह अकेली
विष - दंश मिलेंगे ज्ञात रहा
हैं दिव्य -दृष्टि में घोर अंधरे
गंतव्य मिला तो अंधों से -
विष - दंश मिलेंगे ज्ञात रहा
हैं दिव्य -दृष्टि में घोर अंधरे
गंतव्य मिला तो अंधों से -
उदय वीर सिंह
3 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर ।
गंतव्य मिला अंधेरों से …
जग की यही उलटबांसी !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-09-2014) को "सपनों में जी कर क्या होगा " (चर्चा मंच 1735) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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