ख्वाबों को आँखों से कभी आजाद कर लो
उजड़ा हुआ चमन है फिर आबाद कर लो -
दौर लौटा न कभी , बन के माजी जो गया
क्या मुनासिब है ,अंधों से हिजाब कर लो-
ये तो मालूम है उदय के चाँद तेरा ही नहीं
ये अच्छा नहीं की रातें तुम खराब कर लो -
टूट जाता है दिल ओ आईना एक दिन
ये मुनासिब नहीं की खुद को नाराज कर लो
उदय वीर सिंह
6 टिप्पणियां:
उम्दा... बेहतरीन
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-09-2014) को "कुछ बोलती तस्वीरें" (चर्चा मंच 1750) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
शारदेय नवरात्रों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत उम्दा !
नवरात्रों की हार्दीक शुभकामनाएं !
शुम्भ निशुम्भ बध - भाग ५
शुम्भ निशुम्भ बध -भाग ४
bahut hi lajawaab prastuti.....!!!
Very nice post..
मित्र इतना ही कह सकूँगा कि वाह क्या खुब कहा आपने। कई बार पढ़ा आपकी नज़्म को। धन्यवाद बहुत अच्छी लगी। स्वयं शून्य
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