ले कुदालों से
हल- बैल तक
मसरूफ़ था दानों को उगाने में
फिर भी
आई मुफ़लिसी हाथ
लाचारी ,
रह गयी अधूरी शिक्षा बच्चों की ,
तन बन गया
व्याधियों का घर ...
विवशताए बन गईं पहचान
मशीनीकरण का दौर
भी आया
न उबर सका है अन्नदाता !
कर्ज से
मर्ज से ,
गुरबती से....
अफसोस ! अभिशप्त जीवन से
मुक्ति का मार्ग
चुन पाया है
आत्महत्या
विभत्सता की पराकाष्ठा .....।
उदय वीर सिंह
2 टिप्पणियां:
सोचनीय!!!
अन्नदाता के प्रति यह ध्यान शासन व समाज दोनों को होना चाहिए . बढ़िया कविता .
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