मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

किसान [अन्नदाता ]


ले कुदालों से 
हल- बैल तक 
मसरूफ़ था दानों को उगाने में
फिर भी 
आई मुफ़लिसी  हाथ 
लाचारी ,
रह गयी अधूरी शिक्षा बच्चों की ,
तन बन गया 
व्याधियों का घर ...
विवशताए बन गईं पहचान 
मशीनीकरण का दौर 
भी आया 
न उबर सका है अन्नदाता !
कर्ज से 
मर्ज से ,
गुरबती से.... 
अफसोस ! अभिशप्त जीवन से 
मुक्ति का मार्ग 
चुन पाया है 
आत्महत्या 
विभत्सता की पराकाष्ठा   .....। 

उदय वीर सिंह

2 टिप्‍पणियां:

Pratibha Verma ने कहा…

सोचनीय!!!

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

अन्नदाता के प्रति यह ध्यान शासन व समाज दोनों को होना चाहिए . बढ़िया कविता .