बुधवार, 30 अप्रैल 2014

- उधार कंगन- { लघु कथा }


- उधार कंगन- { लघु कथा } 

***
अरे बाबा किधर को जा रहे हो ? कड़कती आवाज में बंदूक - धारी जवान जो सभा स्थल पर तैनात था पूछा |
नेता जी से मिलूंगा कांपती बेदम आवाज में अपनी छड़ी संभालते हुए बुजुर्ग ने उत्तर दिया |
आज्ञा पत्र है तुम्हारे पास ? सिपाही ने पूछा
नहीं पर मैं मिलूंगा | जिद करते हुए चिलचिलाती धुप में आये माथे के पसीने को पोंछते हुए बुजुर्ग ने कहा |
उसे धक्का दे बाहर करते देख नेता जी ने इशारे से उसे आने का आदेश दिया |
कई लोग उसे नेता जी मिलाने के लिए आगे बढे ,और बुजुर्ग को, नेता जी के पास मंच पर ले गए
चाचा जी ! हरी चाचा ! नमस्कार नेता जी ने हाथ जोड़ कर नमस्ते किया |
बुजुर्ग ने झुक कर दोनों हाथ जोड़े |
हिलते हाथों अपनी थैली से दो सोने के कंगन निकाल देते हुए बोला |
बाबू साब ! पिछली बार की देनी में कुछ कम रह गया था , हम वोट भी आप को ही दिए थे ,हमारे राजू को नौकरी न मिली ,आज बेटी का कंगन उधार लाए हैं पूरा करने को ,हम तन- मन- धन से आप के हैं जी ,आप की नजर हो जाये | दोनों हाथ जोड़ ऊपर उठाते हुए कहा |
मंच पर उपस्थित तीन चार सभ्यजन नारे लगाने लगे
नेता जी जिंदाबाद !नेता जी जिंदाबाद ! बुजुर्ग की आवाज नारों में गुम हो गयी |
रहस्यमयी होठों पर हंसी लिए नेता जी आगे आये और बोले-
मुझे अब कोई हरा नहीं सकता ,मेरे साथ जब ऐसे दानवीर ,कर्मवीर, शूरवीर हैं कोई पैदा नहीं जो मुझे शिकस्त दे | इस वीर सपूत का हम अभिनंदन करते हैं ,इनकी छोटी सी भेंट हमारे जैसे प्यासे के लिए, देश के लिए अमृत की बूंद जैसी है | ऐसे भामाशाहों से ही देश जिन्दा है , इन्हें कोटि कोटि प्रणाम इनके त्याग भाव- भक्ति के लिए | ये प्रेरणा स्रोत हैं उदहारण हैं समाज के लिए |
जयकारे गूंजे ,नेता जी की जय | थोड़ी देर बाद भीड़ व सभा विसर्जित हो गयी ,बुजुर्ग राजू के साथ आवाक अकेला पगडंडियों पर लड़खड़ाते अग्रसर था |
बापू अब तो नौकरी पक्की समझे ? राजू ने पूछा
राजू क्या पता ! पिछली दफा तो उसके घर में दिया रूपया कम था ,पर इस बार तो अपने को नेता जी सुभाष घोषित कर लिया |
अब उम्मीद क्या रखनी, चल एक बीघा जमीन बेच, माधुरी का उधार कंगन लौटाना भी है |

- उदय वीर सिंह

रविवार, 27 अप्रैल 2014

गिला नहीं किनारों से -





न भंवर ने  किया कभी रुशवा 
मुझे   गिला  नहीं  किनारों से  -

कुछ  भी माँगा नहीं बहारों से 
फ़ासले ना रहे कभी नजारों से -

काँटों ने  दिया  चुभन हंसकर 
मुझे  गिला   नहीं   दयारों  से -

जब  रकीबों  से हुआ  याराना
मुआफ़ी की  रश्म  है यारों से -

नेजे पे रख दिल नुमाईश न करो 
ना  पाओगे  कहीं   बाजारों  से- 

                           - उदय वीर सिंह 

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

चमन गांव- मजरे में है


कमजर्फ  हाथों  के  सहारे  ये  सदमें  है
डुलाओ  चंवर  कि  चमन  सकते  में है 
तकदीर लिखने  को है हर कोई  बेताब 
बयाँ करती है तदवीर चमन खतरे में है -

ले आये शहर बांध सोने की बेड़ियों में 
छटपटाहट  है की वो कैद  पिंजरे में है
सह न  पाता है  संग कागजी फूलों का
आत्मा  भटकती कहीं गांव मजरे में है -


जम्हूरियत   के   फ़क़ीर  आते  थे  बेदाग  
अब  दागी आभूषण  बन  पुरष्कृत हो रहे  
बंधक  हो गयी है पंचायत चमन की बेबस
मुक्त करना  होगा चमन खूनी पहरे में है- 

                                        -  उदय वीर सिंह 




रविवार, 20 अप्रैल 2014

वतन आज भी उदास है


ये  कल   भी   उदास  था
वतन आज  भी  उदास है -
कल  दूसरों  के  पास  था
आज  अपनों  के  पास है-
कल अपाहिजों के सिर सजा ताज था
आज   वहशियों   का    आतंकवाद  है
कल  शोलों  का  उजास था
आज   अंधेरों  का  वास  है-
कल  लूटा  गया   अपनों  के  निमंत्रण  पर
तिल तिल कर जीता आज भी षडयन्त्रों पर-
कल जाति का  झंझावात था
आज मजहबों का अधिवास है -
कल रोई थी जोधा दुर्गावती अपनी तकदीर पर
फैसले लिए गए कीमत आबरू और जागीर पर -
कल प्रवंचना  और  प्रलाप  था
आज हारे जुआरी का संताप है -
कल था एकलव्य व द्रोण,संबूक-श्रीराम  का द्वंद
अशहिष्णुता का उद्भव कर्त्तव्य परायणता का अंत-
कल  भोग्या  थी वनवास था
नारी आज अबला है संत्रास है-
कल  भी  वतन  उदास था
आज   भी  वतन  उदास  है -
आत्म - मुग्धता  में जी लेते
अशेष  माजी     परिहास  है -
                      
                             -  उदय वीर सिंह







भ्रम टूट निकला-

फुट  गया  घड़ा  जो  संभाल  कर  रखा था
कौड़ियां  निकलीं रत्नों का भ्रम टूट निकला-
फूलों का गुलदस्ता  सलामत रहे कब तक
रखा सीसे के जार में फिर भी सूख निकला-

कितना था  पुराना मानदंड वो  झूठ निकला
बैठा है सिर पकड़ अपना बेटा कपूत निकला
तपा रहे थे गहन संस्कारों की आग में कबसे
प्यारी  बेटी  का    कदम  भी  अबूझ निकला -

सींचता  रहा सुबहो शाम हसरतें  पूरी  होंगीं 
प्लास्टिक जड़े पातों वाला  पेड़  ठूँठ निकला-
प्यासा मरा  चुल्लू  भर पानी न मिला माँगा 
पानी  के  नाम  सागर   भी  यमदूत निकला -

                                       
                                                   - उदय वीर सिंह 



   





शनिवार, 19 अप्रैल 2014

उदय वीर सिंह



उदय वीर सिंह 
[ प्रश्नगत सन्दर्भों में ]
मैं बहैसियत कलमकार अपनी संवेदना व्यक्त की है ,भावना ,पीड़ा ,संवेदनाओं को मैं समझ सकता हूँमेरी सामर्थ्य क्या हैकुछ भी नहीं ,जितना कर सकता हूँ करता हूँ कह कर अपनी ही नज़रों में मैं गिरना नहीं चाहता, सिर्फ यही कह सकता हूँ कि किसी पदप्रतिष्ठा का मैं याचक नहीं  मैं राजनेता नहीं हूँ वादे और फरेब नहीं करता | पीड़ा क्या होती है ,इसका संज्ञान है मुझे ,अगर पीड़ा ,
ले नहीं सकता तो देने की सोच भी नहीं सकता ..शायद यही मेरे जीवन का दर्शन भी है |

 - उदय वीर सिंह 

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

आज कोई मौन गाया-


प्रस्तरों  से  गीत  फूटा 
ह्रदय में नव बौर  आया  
मंजरी रस-स्निग्ध होई 
कुञ्ज में एक दौर आया  -

वीथियां  स्तव्ध   दग्ध  
ज्वाल   सी   बयार   से 
कहीं  मलय  के गांव से 
स्नेह का एक ठौर आया -

जा  चुका  ओझल  हुआ 
बस  कल्पना में पास था 
विस्मृत हुई स्मृतियों में 
आज फिर से लौट आया -

हो  अंतहीन   पथ   कहीं 
तब   टूटता   है  धैर्य  भी 
सिले   हुए    अधर  खुले  
आज  कोई   मौन  गाया-

                           -  उदय  वीर सिंह 

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

बैसाखी - THE COMMITMENT -


बैसाखी  -  THE COMMITMENT  -
     बैसाखी की पूर्व संध्या पर बैसाखी की  देश व  विदेश वासियों को लख- लख बधाईयाँ व  प्यार 
      साथ  ही अमर शहीदों को भावभीनी  हृदय से श्रद्धांजलि -
बैसाखी 
अर्थतः ' वैसाख वाली ' वह भौगोलिक अक्षीय गतिकीय  अवस्था- प्रदत्त  तिथि जब सूर्य मेख राशि में प्रवेश करता है ,वैसाखी पर्व का आगाज होता है ।इस वर्ष 13 अप्रैल 2014 की मध्य -रात्रि को सूर्य अपना स्थान प्राप्त कर रहा है इस लिए यह पर्व 14 अप्रैल 2014 को मनाया  जा रहा है ।
        इस अप्रतिम तिथि को प्राकृतिक व अप्राकृतिक  इंकलावी घटनाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर युगों तक अपने  पहचान को अमर कर दिया है ।
     बैसाख सुदी 13 संवत 1756 [ 13 अप्रैल 1699  A D ] को दसम सिख- गुरु ,गुरु गोबिंद साहिब जी ने खालसा पंथ की साजना श्री आनंदपुर साहिब में की ।यह सृजन  एक  उद्दाम संकल्प -दिवस  व नव संस्कार- दिवस के रूप में माजी में अमिट सिरोमणि  तिथि के साथ खालसा- पंथ का स्वरुप  पाया । यह त्रासदी, आतंक ,अन्याय, जोर- जबर जुल्म के विरूद्ध ही नहीं ,यह देशी  धर्मांधों के भी विरूद्ध था, जिन्हों ने इस वतन को नारकीय स्थिति में विदेशी आतंकियों से पूर्व ही पहुंचा दिया था । यह आवश्यक हो चला था की उनका भी सोधन हो ,समाज को एक नयी प्रेरणा व दिशा की जरूरत थी,एकता की जरूरत थी ,भय- भूख से मुक्ति की आवश्यकता थी, ,आत्मबल चाहिए था ,प्यार व समरसता का सरोकार वांछित था ,शोषण -कर्ता अब शोषितों की श्रेणी में था ,समूचा भारतीय परिदृश्य ही  लाचारगी में था ,इस अंधकार में मार्तण्ड बनकर यह तिथि सुशोभित  होती है जिसके रचनाकार दसवें पातशाह होते हैं 
      ' मानुख की जाती सब  एकै पछानिबो ' 
खालसा पंथ में उंच -नीच का विचार ही समाप्त हुआ ,सब अमृतधारियों की एक जाति 'सिख' हुई ,आतंक के  खात्मे व अमन के सँस्थापनार्थ एक पंथ का सृजन  हुआ, श्री आनंदपुर साहिब  की सभा में  दसवें गुरु साहिब जी द्वारा परीक्षणार्थ वलिदानियों की मांग की गयी,तब सर्व प्रथम-
दया राम जी 
धरम चंद जी   
हिम्मत राय जी  
मोहकम चंद जी 
साहिब चंद जी 
     ने आत्मोत्सर्ग के लिए स्वयं को अर्पित किया । जो विभिन्न जातियों व  प्रान्तों  से थे  ।,उन्हों ने  पंज प्यारों में अपना नाम  ही नहीं पाया ,वरन दसवें पातशाह को पाहुल [अमृत ] पिला  दीक्षित भी किया । 
         ' वाह, वाह गोबिंद सिंह आपे गुरु चेला ' 
    गुरु महाराज ने उन्हें सिंह से नवाजा ,यह अभूतपूर्व ऐतिहासिक बैसाखी  तिथि अमर संकल्प- दिवस बनी। 
    कुछ स्नेही अति उत्साही जनों के लिए बैसाखी अवसर व धन-धान्य के लिए जानी जाती है कारण है ,
नयी फसल कनक [गेहूं ] का पक कर कटाई के लिए  तैयार होना भी । पर  यह तथ्य गौड़ हो जाता है ,
धन धान्य के लिए सांसाधन तो और भी थे। जिनके लिए वतन पहले है ,धन-धान्य बाद में उनके लिए
 बैसाखी  संस्कार बनी ।
          जो तो प्रेम खेलन का चावो , सिर  धर तली  गली मेरे आवो 
     पर्व बैसाखी 13  अप्रैल 1919 स्थान अकाल-तख़्त  हरिमंदिर साहिब [अमृतसर ] में  दूसरे छद्मवेशी आततायियों अंग्रेजों  के  जुल्म के  विरोध स्वरुप आयोजित  सभा जिसमें  निहत्थे निर्दोष जनों को चारों ओर  से घेर कर गोलियों से भून दिया गया ,पराकाष्ठा थी निर्ममता की । हज़ारों लोग  गए 
 यह पर्व पुनः हजारों वलिदानियों के वलिदान  का गवाह  बना । बैसाखी पुनः संदर्भित हुई अपने त्याग व उर्जास्रोत के लिए ।
    वस्तुतः बैसाखी की पगड़ी  में सारे  रंग  विद्दमान  हैं । बैसाखी प्रेम और वलिदान की पहचान , ख़ुशी और गम को सीने में समेटे ,सबके प्रति समान -भाव सहित  सुख और समृद्धि,अमन की छाँव लिए बैसाखी सबके  जीवन  की प्रेरणा,सददभाव स्रोत बने यही  कामना  है ।
                 भीड़ तां  एकट्ठियां  बधेरियां हुंदियां 
                 बैसाखी दी भीड़  नु मेला कहिन्दे  ने -

                                                                        उदय वीर  सिंह                                    
                   
   
        

रविवार, 13 अप्रैल 2014

अहिंसा परमो धर्मः


मित्रों ! महान प्रवर्तक भगवान महाबीर के अवतरण दिवस पर मेरी बधाईया
 शुभकामनाएं - (अहिंसा परमो धर्मः )-
*****
अहिंसा की दीवारों से हिंसा के चित्र अब तो मित्र
उतार ले -
चुभेंगे दुश्मनों को ही नहीं तुम्हें भी,उन राहों से
कांटे बुहार ले -
वरना बाँचेगा सारी उम्र ख़ूनी अफसाने हाथों में अपने
अखबार ले -
शमशीरों से कभी अमन मिलता नहीं ढूंढते रह जाओगे माजी
चिराग ले -

उदय वीर सिंह

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

आओ बात करते हैं -



आओ बात करते हैं -
हमें पहचान नहीं है परायों की
हमें ज्ञान नहीं है धर्म का जाति का  
संस्कृति राजनीति का 
क्षेत्र, भाषा, वाद, रीति 
गीत, संगीत का .....
हमें तो चाहिए प्यार और प्यार 
सिर्फ प्यार ....
जो दोगे वो लौटाउंगा
चाक की मिटटी हूँ ,
जैसा चाहोगे ढल जाऊंगा ....

                           उदय वीर सिंह 







मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

राम की प्रीत में-



राम   बिना  कैसा  जीवन
चाहे  तुलसी  या कबीर के -
जीवन अर्थ सरल बनता है
प्रेम  पयोधि  शुचि  नीर से-

बहती  है  रसधार  राम  की
काशी काबा हर कण कण में
सोचा   जिसने   वैसा   पाया
मन - मंदिर  या  तस्वीर  में-

मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों को
प्राचीरों  में  क्यों  बांध  दिया
बिन   राम  ये   सारे  सूने  हैं
दिन  बिसरे  राम  की प्रीत में-

                           - उदय वीर सिंह

                        




सोमवार, 7 अप्रैल 2014

महावर रचोगे -




कोई  अंजुमन   में  शरारत  रचोगे
फरेबों  की   कोई  इबारत  लिखोगे   -

वादों  में   अपनी   शहादत  लिखोगे
रकीबों को अपनी हिफाजत लिखोगे -

पांवों  में   अपने   न   होगी  विबाई
रख  ऊपर  जमीं  से  महावर रचोगे -

रश्में -मोहब्बत से तुमको क्या लेना 
यहाँ  आज  हो ,कल कहीं जा बसोगे- 

सदा  न   रहेगा  ये  मंजर  हंसी का 
रो -रो कर एक दिन  इबादत  करोगे -


रविवार, 6 अप्रैल 2014

वत्स - हठ


वत्स !
तेरे हठ से 
सियासत की बू आती है 
बचपन का 
अल्हड़पन नहीं ...
तेरी मांग के आगे ,
माँ को शूद्र,पिता को वैश्य 
बनना पड़ता है ....
यही नहीं कुटुंब को 
क्षत्रिय का किरदार मिलता है 
और तुम होते हो ब्राम्हण की केंद्रीय भूमिका में 
अभिशप्त परिणामों से अनजान .
बेवाक हंसी रचने में
या फिर रोने में ....
तेरे चाँद से खेलने की जिद में खो जाता है 
आसमान ...
बंधक हो जाती है धरती .
मिलता है परजीवियों का आतंक, 
उनके दिये घाव , 
देते है असहनीय अनंत पीड़ा 
त्रासदी में होती हैं सदियां 
बहता है लाल ,श्वेत रक्त अविरल 
सुख जाती हैं 
धमनियां व सिराएं,
बड़ी मुश्किल से मिलता है 
कोई गुरु गोबिंद सिंह 
त्याग का 
प्रतिदान बनकर .....
दूसरों की वलि से पहले
अपनी वलि का 
संकल्प संस्कार ले ..

उदय वीर सिंह

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

मंजिलों की बात है...

तीरगी से खौफ क्या
सहर हुई तो क्या हुआ-
मंजिलों की बात है
न मिली तो क्या हुआ -

दर मंसूख कभी मंजूर
रियाया वक्त के हम हैं


चल रहे थे साथ ले दम
ठहर गए तो क्या हुआ -

हमने तूफान की गर्दिशी
भंवर की रफ्तगी देखी
अभी भी साथ किश्ती है
साहिल नहीं तो क्या हुआ -

गीत शायर की चाहत है
शायर गीत का आलिम
पढता  हर  गली कूंचा
महफ़िल नहीं तो क्या हुआ -


                        उदय वीर सिंह .

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

सलीबों पे आदमी है -


उजालों में आशियाँ है  
अंधेरों  में आदमी है -

आजाद  हैं  परिंदे
बंदिशों में आदमी है - 

अब बस्तियां हैं खाली
सलीबों पे आदमी है -

पहचानता है सबको 
सिर्फ अनजान आदमी है -

ले काँटों की सरपरस्ती 
बेजुबान आदमी है -

                          - उदय वीर सिंह 

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

सुना नहीं पाये ..

लिखे थे गीत तुम्हें दिल से 
सुना नहीं पाये  -

बे-चिराग दिखे न हर्फ़ अंधेरों में 
जला नहीं पाये -

बारिस बे-हिसाब रही सिर पे
घर बना नहीं पाये -

सिलसिला -ए- जफ़ा कुछ रहा ऐसा 
वफ़ा नहीं पाये -

थे भींगे पैर कुछ जमीं गीली 
कदम बढ़ा नहीं पाये -

                     - उदय वीर सिंह