मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

जख्मों को जवाब दे दो -


उन आँखों को ख्वाब दे दो
कदमों को जूते जुराब दे दो- 
प्यासे होठों को आब दे दो
जो बेखबर है आवाज दे दो -
नुमाईस न हो कोई आबरू
आँचल दे दो ,नकाब दे दो -
मुश्किल से उठाता है सिर
फरियादी को हिसाब दे दो -
न दे सकते हो मरहम तो
उदय जख्मों को जवाब दे दो -
उदय वीर सिंह
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रविवार, 28 दिसंबर 2014

दशम पातशाह गुरु गोबिन्द सिंह जी


दशवें पातशाह ,गुरु गोबिन्द सिंह साहिब जी महाराज 
[ दिसंबर 1666 पटना शहर (बिहार) - अक्तूबर 1708 नांदेड़( महाराष्ट्र )] के पावन प्रकाश पर्व पर हृदय से आप सबको लख-लख बधाई एवं शुभकामनाएं,वाहे गुरु से सभी दुनियावी जीवों की खुशहाली व सलामती की अरदास ।
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उजड़े हुये थे बसाये गए हैं 
तेरे नूर से हम सजाये गए है -

हुए हम पाकीजा तेरा करम है ,
लाखों में हम एक बनाए गए हैं-

तेरी रहमतें बिन मागे मिली हैं
मुर्दे भी सोये जगाए गए हैं -

तू सबमें समाया,तेरा नूर दाते
सिर सिजदे में तेरे झुकाये गए हैं -

 उदय वीर सिंह

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

चाहता हूँ प्रेम लिखना ..




चाहता हूँ प्रेम लिखना सिर्फ शोक ही 
लिख पाता हूँ -

मेरी मुश्किल ये है कि मैं प्रेम- रोगी 
नहीं बन पाता हूँ -
चाहता हूँ हसीं ज़ुल्फों में समा जाऊँ
पर गमजदों के पास आता हूँ -
रंग महलों की खुशी मुझे लुभाती है 
झोपड़ी के पास ठहर जाता हूँ -
देख प्रतीक्षा में दोनों हैं एक मौत एक मांस की 
मंजर देख सिहर जाता हूँ -
कोशिशे नाकाम हैं प्रेम गीत लिखने की
दर्द कहाँ भूल पाता हूँ -
न बता मुझे स्वर्ग भी कहीं रहता है उदय 
अपनी शक्ल से डर जाता हूँ -

उदय वीर सिंह 




सरोकार की बातों से...


सुलगते  मुद्दे  हैं , हमारे  और तुम्हारे हैं 
सरोकार की बातें से क्यों बहक जाते हो 

जब  आती बात मुद्दों की सरक जाते हो 
चढ़ा भावनाओं की कड़ाही दहक जाते हो 
छिड़ी बात संवेदना के  गहरी उदासी की
कह राजनीति  की बात निकल जाते हो -

दरबारी कवि भी, पीछे  गए  भाड़पन में
शोला को ,शबनम का  नाम  दे जाते हो 
नंगे  तन  पर हजार लाइक तो बनती है 
देख बेबस को रास्ता कैसे बदल जाते हो -

उदय वीर सिंह 





मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

किसान [अन्नदाता ]


ले कुदालों से 
हल- बैल तक 
मसरूफ़ था दानों को उगाने में
फिर भी 
आई मुफ़लिसी  हाथ 
लाचारी ,
रह गयी अधूरी शिक्षा बच्चों की ,
तन बन गया 
व्याधियों का घर ...
विवशताए बन गईं पहचान 
मशीनीकरण का दौर 
भी आया 
न उबर सका है अन्नदाता !
कर्ज से 
मर्ज से ,
गुरबती से.... 
अफसोस ! अभिशप्त जीवन से 
मुक्ति का मार्ग 
चुन पाया है 
आत्महत्या 
विभत्सता की पराकाष्ठा   .....। 

उदय वीर सिंह

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

बेबे ! .....सुहेले तेरे हथ !.


बेबे ! छुटगे सुहेले तेरे हथ !...
अस्सी याद तैनुं बहुत आवांगे-
कोसां दूध दी कटोरी गयी डुल
फेर अस्सी किथे पावांगे-
कोण पुंजेगा हंजू तेरे अंख दा,
कोल आके फेर नस जावांगे-
आ दसुंगे गल सुपने विच पीड़ दा,
बेबे ! दासता मैं मौत दी सुना जावांगे-
उदय वीर सिंह
[ हिन्दी भावार्थ ]
अम्मा तेरे सुभागे हाथ छुट गए
हम भी आप को बहुत याद आएंगे
गुंगुने दूध की गिलास हाथ से छूट गयी
फिर मुझे अब कहाँ मिलेगी -
अब तेरे आँखों के आँसू कौन पोंछेगा
हम पास का अहसास हो फिर चले जाएंगे
फिर सपने में आकर अपनी पीड़ा सुनाएँगे
अम्मा अपनी मौत की पूरी दासता सुनाएँगे-
उदय वीर सिंह
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गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

मेरे सवाल कभी संसद .....


मेरे सवाल कभी संसद नहीं गए,
वो अवाम के हैं ,आम लोगों के है -

किसी आभिजात्य दौलत मंदों के नहीं
बेकस ,मजलूम तमाम लोगों के हैं -

इत्तेफाक रखते हैं रोटी कपड़ा मकान से
विकास से अंजान लोगों के हैं -

जिनके दम पर खड़ी है वतन की इमारत
तामीरदार गुमनाम लोगों के हैं -

सियासत के मदरसों में ,मोहरे कहे गए
वतनपरस्ती में बदनाम लोगों के हैं -

रविवार, 14 दिसंबर 2014

आग तुममें भी है हममें भी है -



अवसाद तिरोहित करना होगा हौसला ओ
जज्बात हममें भी है तुममें भी है -

क्यों न पिघलेगा बर्फ़ीला मंजर, दहकती हुई
आग  हममें भी है तुममें भी है -


अँधेरों का डेरा हमारी कमजोरी है जलाओ के  
आफताब हममें है भी है तुममें भी है -

कश्मकश की जिंदगी बेकसी देती है, सिकंदर का
अंदाज हममें भी है तुममें भी है -

होगी फतेह हर ऊंचाई कामिल बुलंदियों की 
जुनूने परवाज़ हममें भी है तुममें भी है -

उदय वीर सिंह

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

न रहूँ किसी के लबों .....



न रहूँ किसी के लबों का सवाल बनकर
अच्छा है जलूँ तो कहीं, मशाल बनकर -

नागफनी सींचने से अच्छा है, बांझ होना
किसी गुलशन का रहूँ गुल गुलाब बनकर -

बेकस की मजबूरियाँ मुझे, बेदाग कर दें
अच्छा है जीउ जमाने में कहीं दाग बनकर-

फटे दामन का पैबंद बनना गवारा है मुझे,
लानत है रहना सिर पर खूनी ताज बनकर-

यूं तो जानवर भी बोलते हैं गर्दिशी में उदय
जरूरत है जीना मजलूम की आवाज बनकर -
उदय वीर सिंह

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

बादल जा झील बरसता क्यों है -


तेरे काले धन  के  साम्राज्य में
छोड़  ईमान  सब सस्ता क्यों है -

सहरा  को  जरूरत  है पानी की
बादल जा झील बरसता क्यों है -

जिंद इबादत के गाँव ठहरती रही
पाँव गुरबती के शहर जलता क्यों है -

फरेब की दुनियां में उजास आया
मेरे उजले जहां में, अंधेरा  क्यूँ है -

उदय वीर सिंह

रविवार, 7 दिसंबर 2014

बेड़ी डूबती है -


आँधियाँ दे गईं ,तूफानों का नजराना
की बेड़ी डूबती है -

मजधार में मुसाफिर पतवार भी बेगाना
की बेड़ी डूबती है -

है माझी नशे में चूर मददगार है जमाना 
की बेड़ी डूबती है -

शाहिल कट गए हैं ,मौजें हैं कतिलाना
की बेड़ी डूबती है -

कागज की नाव पंछी, चाहे है पार जाना
की बेड़ी डूबती है -

हौसलों की कब्र साथ ले चाहे है आजमाना
की बेड़ी डूबती है -

उदय वीर सिंह

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

अब खामोश परिंदे हैं -


थी शाखों पर शहनाई बजती 
अब खामोश परिंदे हैं -

थी पीत वसन पावन मंजूषा 
अब आगोश दरिंदे हैं -

नीत नियामक जग प्रहरी था
अब आजाद कारिंदे हैं -

लूट  रहे परदेशी आँगन 
घर बे-घर बासिन्दे हैं -

उदय वीर सिंह 


  

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

माँ से कौन ?


माँ से कौन ?
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     शिक्षक दिवस पर  मुख्य अतिथि  माननीय शिक्षा मंत्री महोदय विद्यालय  के छात्रों को  संबोधित  कर रहे थे । बच्चों ! हमें  समस्त धर्मों का आदर करना चाहिए, सारे धर्म मानव बनाने की आदर्श शिक्षा देते हैं । आपस में हम सभी भाई -भाई  हैं । एक ईश्वर की संतान हैं । विश्व- बंधुत्व का भाव ही शांति और सम्मान का सूत्र वाक्य है । हमें एक दूसरे के उत्सवों, पर्वों को मिल कर मनाना चाहिए । कोई छोटा कोई बड़ा नहीं है । दया ,करुणा ,समता का भाव मनुष्यता का सर्वोच्च गुण हैं । इन्हें अपने जीवन में उतारना होगा ........
      छत्रों ने  मंत्री महोदय के प्रवचन रूपी भाषण को बड़े ध्यान से सुना और आपसी सद्भाव व प्रेम भाई चारा की सपथ ले घर वापस हुये ।
    पा ! क्या मैं अपने मित्र प्रवीण जोशी को आने वाले गुरु पर्व में बुला लूँ ? वो मेरा बहुत अच्छा दोस्त है ।  मेरे पुत्र निहाल सिंह ने हमसे पूछा ।
बेटे क्यों नहीं । इसमे अनुमति की क्या बात है ,गुरु पर्व किसी एक का  नहीं सबका है । मैंने कहा
 पा ! कल के जलसे में मंत्री जी भी यही कह रहे थे । निहाल सिंह  ने कहा ।
गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के जन्म दिन पर प्रवीण जोशी व उसकी छोटी बहन मेरे घर आए मेरे बच्चों के साथ गुरुद्वारे में कीर्तन, कड़ा - प्रसाद व लंगर का आनंद उठाए । उहों ने मुझे शुक्रिया कहा।  मैंने उनको अपनी गाड़ी से उनके घर भिजवा दिया । बच्चे बहुत खुश थे ।
    एका दिन प्रवीण जोशी के घर कोई धार्मिक अनुष्ठान था । प्रवीण ने मेरे बच्चों को  अपने घर आमंत्रित किया । निहाल ने हमसे  कार्यक्रम में जाने की इजाजत मांगी । मैंने सहर्ष हामी  भर दी । निहाल को मैंने नियत समय पर भेज दिया ।
    काफी सर्दी  थी अप्राहन भी  प्रभात जैसा लग रहा था ,मैं कहीं जाने की तैयारी में था । पत्नी बोली
सुनते हो ?
 हाँ जी  ! बताओ । मैंने कहा ।
निहाल और सिमरन को प्रवीण के घर से आते समय ले लेना ।
कितने बजे ? मैंने पूछा ।
 करीब पाँच बजे के आस पास ।  पत्नी ने कहा ।
मैं अपने काम निपटा कर वापस आ रहा था कि पत्नी ने फोन कर बताया ।
आप घर चले आइए बच्चे आ गए हैं ।
कैसे आए , मैं तो लेने जा ही रहा था ।
वो  आ गए हैं ,कितना दूर है ही प्रवीण का घर । पत्नी ने बताया ।
 मैं घर आ गया
थोड़ी देर बाद मैं निहाल को पुकारा
निहाल !
जी  पा !
कैसा रहा मित्र प्रवीण जोशी  के यहाँ का कार्यक्रम ?  मैं सोचता हूँ खूब आनन्दा आया होगा ? मैंने मुदित होते हुये कहा ।
  नहीं पा ! अच्छा नहीं रहा । बेटी सिमरन पास आकर बोली ।
 क्यों ? मैंने प्रश्न किया ।
वीर जी को जोशी अंकल ने थप्पड़ मारा और डांटा । मायूष सिमरन ने  लगभग रोते हुये कहा ।
  मैं विस्मय से  मासूम निहाल कभी सिमरन की ओर देख रहा था ।
सारी पा ! मैंने भी कथा करने वाले पंडित जी से एक प्रश्न कर दिया । हालांकि सभी पूछ रहे थे । मैं समझ भी नहीं पाया ,प्रवीन के पिताजी जोशी अंकल ने मुझे चांटा मारा और डांटा भी । और चले जाने को कहा ।
  फिर हम और सिमरन  आटो से घर चले आए , निहाल के गालों पर आँसू ढल रहे थे ।
आप ने क्या प्रश्न कर दिया की वो गुस्सा हो गए और हाथ छोड़ने की स्थिति  बन गयी ।
 पा  ! पंडित जी प्रबचन में कह रहे थे कि -
ब्राह्मण मश्तिष्क से पैदा हुआ है ,क्षत्रिय भुजाओं से वैश्य उदर [पेट ] से और शूद्र पैर से पैदा हुआ है । ये हमारे समाज की सनातन संरचना है । अगर किसी को कोई शंका हो तो  समाधान भी मेरे पास है ,निःसंकोच पूछ सकता है । मैंने अपनी शंका बताई कि
 पंडित जी ! जब ये सारे विभिन्न अंगों से पैदा हुये तो माँ से कौन पैदा हुआ ?  मेरी शंका का समाधान बताइये ।  यह सुन  पंडित जी गुस्से में आग बबूला हों गए ।
    ये दुष्ट कौन है  ? बोले और मुझे निकल जाने को कहा । तभी प्रवीण के पिताजी मेरे पास आए और बांह पकड़ पंडाल से बाहर ले आए और अपमानित कर  चले जाने को कहा ।
     यह सुन कर मैं आक्रोश में आ गया । फोन मिला रहा था कि प्रवीण के पिता से बात करूँ । तभी मेरी पत्नी बोली ।
     मत बात करो ! विवाद का कारण बनेगा । ये उनकी सोच है ,विवाद का विषद रूप बच्चों को उद्वेलित कर सकता है । मैं अपने को संयत करने कि कोशिश करने लगा ।
   अपने अध्ययन कक्ष  छत को देखते में सोच रहा था । ये नैशर्गिक बाल सुलभ प्रश्न को चाँटों ने   विरमित तो कर दिया ,तिरोहित नहीं हुआ । कल समाज का प्रश्न बन बनेगा , माँ से कौन पैदा हुआ ? क्या चाँटों का प्रयास इनको तिरोहित कर पाएगा ? शायद नहीं ! यदि हाँ तो यह अपराध होगा ।

उदय वीर सिंह .