बुधवार, 29 अप्रैल 2015

ख़ैर-

हमको सम्हाला मुशीबतों ने
ख़ैर हमसे रूस गई -
अच्छा हुआ तन्हा नहीं मैं  
घर हमारे बस गई -
मैं उडीकां बीच नहीं हूण
नाल आती ले सुबह नई -
चाहता मसर्रत जाए वहाँ 
जहां हसरत अधूरी रह गई -
शाख का पत्ता सरिखा 
हवा फिर मौज लेकर बह गई 
खोल कर रखना जिगर 
जाते जाते कह गई -

उदय वीर सिंह 

1 टिप्पणी:

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30 - 04 - 2015 को चर्चा मंच चर्चा - 1961 { मौसम ने करवट बदली } में पर दिया जाएगा
धन्यवाद